सत्ता के मैनेजरों व नैतिकता के पहरेदारों की रस्साकशी


क्या आप किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी या बुजुर्ग कांग्रेसी से मिले हैं ? प्रायः कांग्रेस की भटकन, सत्ता पाकर उसने आई फिसलन और लक्ष्यों से विचलन का जिक्र करते मिलेंगे । गांधी और सुराज के सपनों की पीड़ा छलकाती यह जमातें कांग्रेस पार्टी एवं उसके नेताओं से वितृष्णा से भरी दिखती है। ये वे लोग हैं, जिन्हें लगता है कि उन्हें छला गया है। लगभल ऐसा ही विलाप इस समय संघ परिवार के बुजुर्गों में व्याप्त है। 1925 से हिंदू राष्ट्र का मंत्र-जाप कर रही यह पीढ़ी और प्रचारक परंपरा इस समय हाहाकार की मुद्रा में है। उनका विलाप कमोबेश उन्हीं बुजुर्ग कांग्रेसियों सरीखा ही है, जो सत्ता में हिस्सेदारी न मिलने या अपने नैतिक आग्रहों के चलते राजनीति के रंगमंच पर मचे धमाल से दुखी रहते हैं। राष्ट्रीय स्वंयसंवक संघ के सरसंघ चालक के. सी. सुदर्शन ऐसे ही दुखी बुजुर्गों की पीढ़ी को स्वर दे रहे हैं। इसमें आप एक नाम दत्तोपंत ठेंगड़ी का भी जोड़ सकते हैं। दरअसल यह सूची बहुत लंबी है। जिले-जिलों में पसरी संघ की शाखाओं तथा विविध संगठनों में, उनके कार्यकर्ताओं में, भाजपा के तौर-तरीकों एवं कामकाज को लेकर अवसाद की एक परत गहराती जा रही है। सत्ता पाने की खुशी, सपनों के महल अब टूटते लग रहे हैं। इस असंतोष का ज्वार संगठन पर ज्दादा प्रभाव डाले, इसके पहले ही संघ नेतृत्व ने अपने तेवरों से कार्यकर्ताओं की पीड़ा को स्वर दे दिया । लेकिन क्या इस ‘चालाकी’ से अवसाद की यह परत कम हो जाएगी ? नैराश्य के बादल छंद जाएंगे ?

सही अर्थों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संकट यह है कि वह एक तरफ सत्ता से जुड़ा रहना चाहता है तो दूसरी ओर नेताओं पर नैतिक नियंत्रण का डंडा भी चलाना चाहता है। अपने सारे संगठन तंत्र को विस्तारित एवं पुष्ट करने के बजाए संघ ने उसे भाजपा के इस्तेमाल में लगा दिया है । सुदर्शन से लेकर तहसील, गांवों में संघ का काम कर रहे प्रचारक, जिनमें ज्यादातकर अर्द्धशिक्षित हैं और भावनात्मक आधार पर काम करते हैं, भाजपा नेताओं की नैतिक पहरेदारी का काम करते दिख जाएंगे । दरअसल संघ ने अपने कार्यकर्ताओं को किसी प्रकार की राजनीतिक एवं व्यावहारिक दीक्षा देने में कभी रुचि नहीं ली। उसके कार्यकर्ता प्रायः भावनात्मक नारों और ‘आदेश परंपरा’ से बंधे होते हैं। नैतिकता का दंभ उनके कुट-कुट कर भरा है। राष्ट्रवाद की भावना के नाम पर उन्हें यह बताया गया है कि संघ नेतृत्व और उसके स्वयंसेवक से लिए देश सर्वोपरि है। शायद इसी संदेश के चलते कष्ट सहकर, विपरीत परिस्थितियों में भी उनके स्वंयसेवक, संघ के ‘आदेशों’ से बंधे रहते हैं । सत्ता में आने के बाद राज्यों एवं केंद्र में इसी ‘शुचिता एवं पवित्रता’की परंपरा धराशायी होती दिखी। म.प्र. में सुंदरलाल पटवा, उ.प्र. में कल्याण सिंह, राजस्थान में भैरोसिंह शेखावत, गुजरात में केशुभाई पटेल, दिल्ली में मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा, सुषमा स्वराज के राज कोई ऐसा मानक नहीं गढ़ सके, जिसके भरोसे भाजपा उन्हें ‘सुशासन’ के प्रतीक बता सकें।

केंद्र में 3 बार सरकारें बनाने के बाद स्वदेशी की परंपरा का भंजन कर उदारीकरण के दूसरे दौर की शुरुआत कर दी गई। बीमा बिल, एनरॉन दो ऐसे मामले थे, जिनके खिलाफ आंदोलनों में भाजपा ने अगुवाई की थी। ये चित्र भाजपा के बारे में स्वयंसेवकों की राय खराब करने के लिए काफी थे। फिर मंदिर का सवाल विहिप को ग्रस रहा था। कश्मीर में लगातार मिलती मात, कानून-व्यवस्था की बदहाली, महंगाई तमाम ऐसे मोर्चे खुल गए, जहां सरकार लाचार नजर आई । सुदर्शन ने अपनी ‘नैतिकता पुलिस’ वाली शैली से वाजपेयी के मंत्रालय में जसवंत सिह को वित्तमंत्री नहीं बनने दिया, लेकिन ‘संघ’ की पसंद यशवंत सिन्हा से आज वाजपेयी सरकार वह सब करवा रही है, जिसकी आशंका से सुदर्शन-ठेंगड़ी ग्रस्त थे। उदारीकरण का रथ स्वदेशी की भावना को रौंदता जा रहा है। ‘सुदर्शन एंड कंपनी’ इस दृश्य को सिर्फ संतप्त हृदय से देखती रह गई। अब नए आए भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के तेवरों से संघ परिवार की पीड़ा और बढ़ गई है। गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में कार्यकर्ता प्रचार के लिए घर से बाहर नहीं निकले। विहिप नेता प्रवीणभाई तोगड़िया ने खुद कहा कि ऐसा बंगारू लक्ष्मण के अचानक उत्पन्न हुए ‘मुस्लिम प्रेम’ के चलते हुआ है। विश्व हिंदू परिषद अब सरकार की बाहें मरोड़ने की तैयारी में है। एक-दूसरे के प्रति अविश्वास के जो दौर संघ-भाजपा ने अपनी सरकार के कार्यलय में देखे हैं, वे उनकी समझदारी पर सवाल लगाने के लिए पर्याप्त हैं। ऊपर से नीचे तक संघ परिवार में सत्ता का उत्साह नहीं दिखता । वे दुखी हैं, सवालों से घिरे हैं, समाधान नदारद हैं। हुंकारों और ललकारों की अभ्यासी यह जमात सत्ता की बंधी-बंधाई शैली से बहुत अकुलाहट महसूस कर रही है। संघ-भाजपा के शिखर नेतृत्व में प्रायः इस बात की सहमति है कि सरकार को चलने दिया जाए । लेकिन संकल्पों के उलट आचरण का जवाब कैसे और किस रूप में कार्यकर्ताओं को दिया जाए आरएसएस की असली पीड़ा यही है।

अटलबिहारी वाजपेयी की राजनैतिक शैली उसे (संघ को) कभी रास नहीं आई, किंतु वे अब ‘मुखौटा’ नहीं सरकार और पार्टी का ‘असली चेहरा’ बन गए हैं। आडवानी ने भी अपने पंख समेट कर प्रायः वाजपेयी की धारा में अपने को समाहित कर लिया है। डॉ. मुरली मनोहर जोशी, जो अपने विचारधारात्मक आग्रहों के लिए जाने जाते थे, चुपचाप अपने मंत्रालय में लगे हैं। बड़बोली उमा भारती का हश्र सामने है। सुषमा स्वराज को जरूर ‘संघ भक्ति’ का प्रसाद मिल गया है, किंतु वे भी अब शांत रहने को मजबूर हैं। गोविंदाचार्य को पार्टी ने ‘वनवास’ दे दिया है। कार्यकर्ता इन संदेशों से परेशान हैं। आजीवन विपक्ष की राजनीति और विरोधी मानसिकता में रचे-बसे इस परिवार को राजनीतिक परिवर्तनों को सहजता सेलेने की कला अभी सीखनी है। सत्ता पाकर सारा कुछ ठीक कर देने की भावभूमि पर पले सपने अब दरक रहे हैं। कश्मीर से लेकर पूर्वांचल तक के सवाल जस के तस खड़े हैं । ये सवाल बुजुर्ग कार्यकर्ताओं की पीड़ा का कारण बन गए हैं। नई पीढ़ी और ताजा हवा से संघ का संवाद लगभग बंद है। संघ की ‘भाजपा चिंता’ और ‘देश चलाने व सुधारने की पीड़ा’ में उसकी खुद की शखाएं कमजोर हुई हैं। युवा तो प्रायः इन शाखाओं में जाते नहीं। युवा हो रही पीढ़ी से संघ का बंद हुआ यह संवाद तेज होती बाजारवादी हवा के चलते भी हो, किंतु संघ के पास उन्हें जोड़ने, साथ लेने के कार्यक्रम नहीं हैं। सरकार की नीतियों से मध्यवर्ग में संघ का आधार भी घटा है। पूंजीपति वर्ग सत्ता के नाते भाजपा के निकट जरूर आया है। किंतु सत्ता के दौर के ये मित्र कब तक साथ रहेंगे कहना मुश्किल है।

सही अर्थों में संघ परिवार इस समय दो खेमों में बंट गया है-एक तरफ वे लोग है, जो किसी न किसी रूप में सत्ता से, शासन से जुड़े हैं और दूसरी तरफ वे लोग जिन्हें संघ के विविध संगठनों का प्रभाव है। ये लोग रात-दिन भाजपा सरकार लाने में अपने द्वारा किए गए त्याग, बहाए गए पसीने को याद करके सरकार के वर्तमान कार्यों की समीक्षा कर आंसू बहाते रहने हैं। सत्ता के सुख इन्हें कंटक की तरह दिखते हैं। वे अपनी ‘नैतिकता पुलिस’ की भंगिमा में पूरी तरह मुस्तैद दिखते हैं। दूसरी ओर सत्ता से जुड़े कार्यकर्ता अब संघ या उसके संगठनों में पूरी तरह मुस्तैद दिखते हैं। दूसरी ओर सत्ता से जुड़े कार्यकर्ता अब संघ या उसके संगठनों के आग्रहों को अपने पैरों की बेड़ियां मानने लगे हैं। उनमें भाजपा को एक स्वयंपूर्ण और मुक्त संगठन बनाने की चेतना बलवती हुई है। किंतु सत्ता के मैनेजरों की, नैतिकता के पहरेदारों से यह लड़ाई किसी तार्किक परिणिति तक शायद ही पहुचे, क्योंकि अपनी संरचना में ही भाजपा संघ पर पूरी तरह आश्रित है। उसके प्रमुख पदों पर प्रायःसंघ के प्रचारक नियुक्त हैं, जो दोहरी प्रतिबद्धता सेबंधे हैं और यह भी जरूरी नहीं कि कोई हमेशा सत्ता में रहे-जिसे जब तक मौका मिलता है, सत्ता में मलाई काटता है और ‘हकाले’ जाने पर ‘संघ के कोप भपन’ में जा बैठता है। अतः यह नूराकुश्ती जारी रहने वाली है। जिसे सत्ता के साथ पेंगें भरने का अवसर होगा, वह पेंगें भरेगा । फुरसती लोग किसी सुदर्शन जी या ठेंगड़ी जी के कान भरेंगे । वैसे भी सत्ता पर नैतिक नियंत्रण की कोशिशें कभी सफल नहीं होतीं। सत्ता की अपनी चाल और अपना चरित्र होता है। वह (सत्ता) तो नहीं सुधरेंगी, संघ का चेहरा, चाल, चरित्र जरूर बदल देगी, अच्छा होगा संघ की की यह अर्द्धशिक्षित फौज अपने उन कार्यकर्ताओं पर भरोसा करे, जिसे उसने राजनीति में भेजा है, क्योंकि यदि अटलबिहारी वाजपेयी-आडवानी-जोशी पर संघ का भरोसा नहीं है तो देश किसी सुदर्शन, ठेंगड़ी या गुरुमूर्ति पर पर भरोसा क्यों करे ? शायद सुदर्शन जी भी इस पर गंभीरता से सोचेंगे।

(5 नवंबर, 2000)
000

No comments: