प्रशस्तियां


युवा पत्रकार संजय संजय द्विवेदी की जनवरी, 2003 में छपी किताब ‘इस सूचना समर में ’ की मीडिया जगत में व्यापक चर्चा हुई। कुछ पत्र और कुछ टिप्पणियां
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समाज को सही दिशा मिले यह काम साहित्यकार और अखबार का है। संजय द्विवेदी न इसी उत्थान की भावना से लेखन किया है।

0महामण्डलेश्वर स्वामी शारदानंद सरस्वती जी

हम पत्रकारों का हर वक्त एक ही कार्य है-स्वच्छंद, निरपेक्ष, सटीक टिप्पणी समय चक्र ने अनुसार घटती घटनाओं पर कर अपने पाठकों को हर विषय समग्र तैयार करना । आपने यह काम बखूबी किया है। मेरी राय में आपकी पुस्तक पत्रकारिता का अध्ययन कर रहे छात्रों के लिए उपयोगी होगी।

0विनोद माहेश्वरी
प्रबंध संपादक
नवभारत, नागपुर

सूचना क्रांति के दौर में यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी।

0जगदम्बिका पाल
पूर्व मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश

संवेदनशीलता और निर्भरता के गठजोड़ की तुम्हारी बात बहुत सही लगी। सच बात तो यह है कि संवेदनशीलता ही हमारे पेशे को सार्थकता देती है। झलके भले ही नहीं हमारे लेखक में, पर हमारा सोच इस संवेदनशीलता के बिना एकांगी हो जाता है। मुझे विश्वास है तुम अपने जीवन-लेखन में यह संवेदनशीलता बनाए रख सकोगे।

0विश्वनाथ सचदेव
स्थानीय संपादक
नवभारत टाइम्स
मुंबई

संजय तन से युवा हैं, पर चिंतन में वे पर्याप्त प्रौढ़ हैं। उनकी अभिव्यिक्त में गले तक उतर जाने का सामर्थ्य है । मैंने उनकी लेखनी में कभी दारिद्रय नहीं देखी। पूरी शाक्ति के साथ लेखनी प्रदेश की पत्रकारिता में संजय के पदाचिन्ह अंकित करती रही है।

0राजेन्द्र शर्मा
प्रधान संपादक
स्वदेश समाचार पत्र समूह
भोपाल)


संजय द्विवेदी ने पुस्तक के माध्यम से सच्चाई को सामने लाने का प्रयास किया है। यह किताब लोगों तक पहुंच कर उन्हें यर्थाथ से अवगत कराएगी।

0नंदकुमार पटेल
गृहमंत्री : छत्तीसगढ़ शासन
रायपुर, छत्तीसगढ

‘इस सूचना समर में’ शब्द-शब्द पढ़ गया । टीएन शेषन, कल्पनाथ राय के संदर्भ में आपकी बेबाक टिप्पणी अविस्मरणीय है। कथ्य और शिल्प दोनों को आपको कारण उंचाई मिलेगी । आपसे हिंदी पत्रकारिता है। कथ्य और साहित्य को सुपुष्ट होना है :-

हिंदी सेवी विज्ञवर मानस व्याख्याकार । श्री संजय से हो रहा पत्र-जगत श्रृंगार ।
पत्र जगत श्रृंगार सूचना लोक विधायक। धर्म-कर्ममय भारतीय संस्कृति उन्नायक।
शब्दों का ले सुमन और भावों का चंदन । चतुर्वेदमय पत्रकार संजय का वंदन ।

0डॉ. अर्जुन तिवारी
पाठ्यक्रम सलाहकार
जनसंचार एवं पत्रकरिता विभाग,
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा

‘इस सूचना समर में’ पढ़ी। ‘नवभारत’ के साथ ही अन्य अखबारों में प्रकाशित तुम्हारे सभी लेखों को पढ़कर अच्छा लगा। लेख काबिल-ए-तारीफ हैं। पुस्तक के माध्यम से तुम्हारी प्रतिभा को और गहराई से समझने का मौका मिला।

0केशर सिंह विष्ट
संपादक : डांडी-कांठी, ठाणे


आपने अपनी पुस्तक के दोनों खण्डों ‘राजनीति’ एवं ‘लोग’ के तहत हमारे राजनीतिक –सामाजिक तंत्र की जैसी व्याख्या की है वह अद्भुत है। इसी प्रकार आप स्वयं अग्रसर रहकर पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी कलम के जादू को हिंदुस्तान ही नहीं वरन पूरे विश्व में खुशबू की तरह फैलाएं । मैं अपने जादू परिवार कीतरफ से आपके उज्जवल भविष्य की मंगलकामना करता हूं।

0जादूगर ओपी शर्मा,
कानपुर
ताब से आपका अध्ययन झलकता है। यह महसूस होता है कि लेखक अपने आसपास की घटनाओं को लेकर मूक दर्शक नहीं है वरन वह लोकहित के नजरिए से उन पर न केवल सोचता है बल्कि चाहता है कि लोग जाने कि कहां क्या हो रहा है । लेखक ने सच को सच लिखने का साहस किया है।

0योगेश मिश्रा
पत्रकार : अंबिकापुर

पुस्तक में संकलित लेख राजनीति, राजनेता एवं पत्रकार से मुख्यतः जुड़े हैं। इनमें विविधता के साथ-साथ एक समता भी है। समता का यह संदर्भ भारतीयता और भारतीय दृष्टि से जुड़ा है । इसी कारण 1992से 2000के मध्य की घटनाओं और संदर्भों पर इस समय लिखे लेख एवं टिप्पणियां आज भी प्रासंगिक हैं । संदर्भों के साथ ही इस पुस्तक के शीष्र ने भी मुझे बहुत आकर्षित किया ।

0 डॉ. ओम प्रकाश सिंह
रीडरः महामना मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान,
काशी विद्यापीठ, वाराणसी)
पत्र-पत्रिकाओं की नजर में
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युवा पत्रकार संजय द्विवेदी की नई कृति ‘इस सूचना समर में’ सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के टूटने-विखरने एवं उससे उपजे संघर्ष के नवोन्मेष का पहला गंभीर दस्तावेज है ।

0आंचलिक पत्रकार (मासिक) –
भोपाल (फरवरी, 2003)

संजय का शिल्प चित्ताकर्षक है । उनके लिखे में एक प्रवाह है जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है ।

0संवेद
वाराणसी (अप्रैल- मई, 2003)

आज ये सभी लेख बासे नहीं अपितु पहले से अधिक महत्वपूर्ण शक्ल अख्तियार कर चुके हैं क्योंकि आज का राजनीतिक परिदृश्य उसी पूर्ववर्ती आधार पर खड़ा है । यह पुस्तक आज की परिस्थितियों से एक उपयोगी ग्रंथ सिद्ध हो रही है ।

0शिखर वार्ता (मासिक)
भोपाल (मार्च, 2003)

संजय ने काफी परिश्रम किया है तथा तथ्यों एवं घटनाओं को इस मजबूती से रखा है, जिससे राजनीति की स्वस्थ परंपराओं को तिरोहित करते उन हाथों को पहचना भी जा सके तथा उनका परिष्कार भी किया जा सके ।

0 नवभारत (हिंदी दैनिक)
मुंबई (30मार्च, 2003)


यह पुस्तक अत्यंत प्रामणिकता के साथ अनेक तथ्यों और सूचनाओं के साथ अपने समय का राजनीतिक इतिहास तो दर्ज करती ही है साथ ही राजनीति से संबंधित व्यापक सामान्यीकरणों तक भी पहुंचाती है ।

0हरिभूमि(हिंदी दैनिक)
(9मार्च, 2003)

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में संजय का युगबोध अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के बीच भारत की पावन भूमि में सामाजिक अलगव के कारणों की गहरी छानबिन करता है। मदमस्त राजनेताओं तथा अलमस्त समाजवादियों की थोथी दलीलों तथा व्यवहारों में गुम होती भारतीय आत्मा, शुचिता, पवित्रता की खोज किताब का अभीष्ठ है ।

0दैनिक गांडीव
वाराणसी (8मार्च, 2003)


सभी वर्गों के सचेतकों विशेषकर इतिहास, राजनीति एवं पत्रकारिता में रूचि रखने वाले लोगों एवं विद्यार्थियों के लिए यह किताब एक आईना है ।

0दैनिक जनकर्म
रायगढ़ (9 फरवरी, 2003)

जन-गण-मन में चर्चित अनेक महत्वपूर्ण राजनीति ज्ञों, समाजसेवियों तथा साहित्यकारों की गुणधर्मिता व इसके प्रभावों पर विषद चर्चा सूचना समर को उपयोगी संदर्भ के रूप में स्थापित करती है ।

0दैनिक कर्णप्रिय
कोरबा (9 फरवरी, 2003)

चुनावी महाभारत से पहले


छत्तीसगढ़ में चनावी महाभारत का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया है। सेनाएं सज रही हैं-हुंकारों –ललकारों का दौर भी प्रारंभ है। इस दौरान हुई दो घटनाओं विधानसभा उपाध्याय बनवारी लाल अग्रवाल का इस्तीफा तथा मरवाही में वीसी शुक्ल पर हमले ने भविष्य की राजनीति का संकेत दे दिया है । ये घटनाएं राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ती असहिष्णुता तथा घटती संवादहीनता का ही परिचायक हैं।

चुनाव वर्ष हमें ज्यादा सचेत होकर, मर्यादाओं में रहकर ऐसा वातावरण बनाना था ताकि लोकतंत्र के इस उत्सव के प्रति हम लोग की आस्था बढ़ा पाते-हम अलग संकेत दे रहे हैं। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति वैसे भी आम जनता की आस्था नहीं बची है ने ही लोग अब उसे बहुत उम्मीदें रखते हैं ताजा दौर में अनास्था की यह धारा कहीं टूटती नहीं दिखती । लोग अपनी रोजमर्रा की कठिन होती जा रही जिंदगी के संघर्ष में ही इतने व्यस्त है कि उन्हें राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रपंच न तो दुखी करते हैं न ही यह उम्मीद दिलाते हैं कि चुनावी मतपेटियों से निकलने वाले देवदूत उनके सारे संकट हर लेंगे। जनता सिर्फ यह चाहती है कि राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग उन पर सिर्फ सदाशयता दिखाएं- ताकि उनके दुख कुछ घटे भले न, पर बढ़े भी नहीं।

छत्तीसगढ़ जैसे नए नवेले राज्य में जहां विकास के काम हर मोर्चे पर तेजी से चल रहे हैं या कह कहें कि सालों की उपेक्षा के बाद अब यह प्रदेश एक आकार ले रहा है, बड़े संयम की जरूरत है। राज्य के विकास में हर वर्ग की भागीदारी जरूरी है। लेकिन ये खबरें दुखी करती हैं कि राजनेता आपस में लड़ रहे हैं। हालात यह है कि मुख्यमंत्री दिल्ली में राज्य के सांसदों की बैठक बुलाते हैं पर भाजपा के सांसद बैठक में नहीं जाते । राज्य के विकास के सवालों पर भी राजनीति का यह रवैया और संवादहीनती दुखी करती है। राज्य के लोग इन चीजों को देख रहे हैं। उनके मन में कसक है कि वे राज्य के निर्माण में, उसकी बेहतरी में सबको साथ नहीं देख पा रहे हैं। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो सार्वजनिक हित के होते हैं। उसमें सबकी एकजुटता को तोडें । व्यापक हित के सवालों पर समवेत आस्था दिखाएं । चुनावी जंग के हथियार राज्य की शांतिप्रिय व समन्वयवादी तासीर को आहत न करें यह ध्यान रखना होगा। साथ ही साथ हम अपने नए राज्य में ऐसे राजनीतिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना करें जिससे आने वाली पीढ़ी की प्रेरणा भूमि भी तैयार हो । लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति ही बहुत सी चीजों का नियमन करती है-वही जोड़ती है, वही तोड़ती है। दुर्भाग्य कि हम बहुत तात्कालिक सवालों पर तात्कालिक हल निकालने के अभ्यासी हो गए हैं। दीर्घकालिक सोच, कर ला विचार आज की राजनीति में नहीं दिखता। सो मर्यादाएं टूट रही हैं, मूर्तिभजन का दौर चरम पर है। ये अप्रिय प्रसंग भी सोच का रास्ता बनाते हैं- हम सोचें और इनकी पुनरावृत्ति से बचें । क्योंकि यही रास्ता जायज है।

(14 मार्च, 2003)
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नहीं मिलेगी नौकरी


जी हां यह बात छत्तीसगढ़ के वित्तमंत्री रामचंद्र ही कह सकते हैं। कड़वे सच को जिस बेबाकी से उन्होंने व्यक्त किया है वह साहस हमारी मुख्यधारा की राजनीति में कहां दिखता है ? रायुपर में 2 मार्च को अपनी पत्रकार-वार्ता में उन्होंने जो कुछ कहा उसका लब्बोलुआब यह है कि सरकार के पास नौकरी के अवसर सीमित हैं और सरकारी नौकरी देने से बेरोजगारी खत्म नहीं हो सकती । उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा कि सरकार की प्राथमिकताओं में वे लोग हैं, जिनको दो वक्त का भोजन भी नहीं मिलता।

राज्य गठन के 2 साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद सरकार के किसी आधिकारिक प्रवक्ता ने पहली बार इस सच को स्वीकार किया है कि वह नौकरियां नहीं दे सकती । लाखों बेरोजगार युवा जो अपने रार्य में रोजगार की आस लगाए दो सालों से टकटकी लगाए बैठे हैं- वित्तमंत्री का बयान उनके सपनों पर बज्रपात जैसा ही है। इसके बावजूद वित्तमंत्री की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि वे युवा पीढ़ी को भुलावे की दुनिया में नहीं रखना चाहते । वे सपने नहीं दिखाते, रोजगार सृजन के सच्चे-झूठे वायदे भी नहीं करते । नई पीढ़ी जो सपनों की दुनिया में जीती है, वित्तमंत्री ने उन्हें झकझोरा है कि वे इस ‘लोककल्याणकारी राज्य’ से कोई अपेक्षा न रखें । सरकार ‘कारपोरेट’ में बदल रही है और उसकी ‘राज्य के जन’ के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। युवाओं के लिए सरकार का संदेश है कि वे अपने रास्ते खुद तलाशें । यह बेहतर होता कि राज्य गठन के आरंभ में ही सरकार ने यह बात साफ कर दी होती कि वह किसी को रोजगार नहीं देगी और नई पीढ़ी उससे कोई अपेक्षा न पाले। सरकार ने ऐसे कोई संकेत न दिए-इस आस में छात्रों ने अपने 2 साल सपने देखते हुए जाया कर दिए। अब मुख्यमंत्री ने एक ओर सरकारी नौकरियों के लिए आयु सीमा बढ़ाने की घोषणा की है तो 2 साल से सुप्त प्राय छत्तीसगढ़ लोकसेवा आयोग ने भी परीक्षाएं कराने की घोषणा की है। इन आश्वासनों के बीच वित्तमंत्री की बात कड़वी जरूर है लेकिन वास्तविकता का साहसिक स्वीकार है।

कुल मिलाकर राज्य के वित्तमंत्री का बयान युवाओं के लिए प्रथम दृष्टया तो नैराश्य का संदेश है तो दूसरी ओर वह नए विकल्पों की ओर देखने का सुझाव भी है। शासकीय क्षेत्रों की नौकरियों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण के मोह में फंसे युवा अन्य क्षेत्रों –विकल्पों की ओर रुख कर सकते हैं । सैद्धांतिक तौर पर एक ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ में सरकार की जिम्मेदारियां बहुत होती हैं लेकिन बदलते परिद्श्य में सरकारें इन सामाजिक दायित्वों से पल्ला झाड़ रही हैं। यह अकारण नहीं है कि बिलासपुर रेलवे जोन जैसे भावनात्मक सवाल पर भी राज्य शासन के एक मंत्री बिलासपुर शहर में ही यह टिप्पणी करके चले जाते हैं कि रेलवे तो कमाने के लिए आया है हम उसे मुफ्त में जमीन क्यों दें ? इस बयान पर भी लोगों की कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं होती । यह खामोशी और सत्ता का बड़बोलापन दोनों शासन की बदलती भूमिका तथा घटते सामाजिक सरोकारों का प्रतिफलन ही है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में उच्चशिक्षा पर होने वाला व्यय कई गुना हो गया है। हालात यह है कि उच्चशिक्षा सर्फ खास लोगों के लिए बन कर रह जाने वाली है।

वित्तमंत्री के इस पूरे संवाद का मौजूं पहलू यह है कि वे सबके बावजूद आखिरी आदमी की चिंता करना नहीं भूलते । वे कहते हैं कि पहलू यह है कि वे सबके बावजूद आखिरी दो वक्त के निवाले के लिए राहत कार्यों में पसीना बहा रहे हैं। सरकार को इन लोगों की चंता ज्यादा है।’ वित्तमंत्री की यह संवेदनशीलता आश्चर्यचकित करती है। एक तरफ नौकरी न देने के दावे, नौकरी कर रहे लोगों को वीआरएस देने की तैयारी तो दूसरी ओर गरीब के निवाले की इतनी चिंता ?

बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज को दिशा देने, उन्हें राह दिखाने, उनकी उर्जा के रचनात्मक इस्तमाल की जिम्मेदारी क्या सरकार की नहीं है ? ‘नौकरी नहीं दे सकते’ इतना भर कहकर क्या कोई सरकार अपने दायित्वों से मुंह फेर सकती है। राज्य के लाखों युवा अपना भविष्य गढ़ने आखिर किस पर भरोसा करें ? सरकारी नौकरियों के अलावा रोजगार के वैकल्पिक स्त्रोतों के बारे में उन्हें कौन बताएगा ? रोजगार परक पाठ्यक्रमों की उपयोगिया बढ़े इस पर कौन दैगा ? किस कौशल को जानकर छत्तीसगढ की युवा शक्ति इस बाजारवाद में अपना आस्तित्व बचाकर व्यक्तित्व गढ़ सकेगा ? राज्य के शिक्षा संस्थान जैसी पैदावार कर रहे हैं उनकी गुणवत्ता को कौन तय करेगा ? यह जिम्मेदारी अगर सरकार ने नहीं ली तो निराशा और अवसाद में युवा पीढ़ी की दिशा क्या होगी ? सरकार निराशा के दृश्य ही न दिखाए यह भी बताए कि सरकारी नौकरियां न सही युवा पीढी किस तरह और कैसे इस राज्य के विकास में अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकती है। यह रास्ता राज्य के विवेक, नैतिकता और साझादारी का परिचय देगा ।

(6 मार्च, 2003)
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लाल-पीली बत्तियों के बिना


शासकीय वाहनों पर लाल-पीली बत्तियां शक्ति की प्रतीक हैं, राजसत्ता की शक्ति का प्रतीक । जनता के विशिष्ट सेवकों की पहचान। उनकी पहचान जो आम जनता की सेवा वीआईपी बनकर करते हैं। जिनके लिए सारे नियम शिथिल कर हर द्वार खोल दिए जाते हैं। प्रतिष्ठा और शक्ति का प्रतीक बनीं ये बत्तियां अब नहीं दिख रहीं। छत्तीसगढ़ सरकार के इस एक फैसले ने वास्तव में सत्ता और प्रशासन की बेचारगी तथा दयनीयता के दर्शन करा दिए हैं। लाल-पीली बत्तीयों को हटाने के राज्य शासन के फैसले का अध्ययन खासा मनोरंजक भी है।

लालबत्ती न रहने के कारण ही प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री रामपुकार सिंह को लुटेरों ने घेरा-यह बात वे स्वयं कह रहे है । साथ ही एक मंत्री को बिना की गाड़ियों के ट्रैफिक में फंस जाने का गम है। ऐसे अप्रिय हालात जब सत्ताधीशों के साथ होते हैं तो पता चलता है कि जमीनी स्थितियां क्या हैं। सालों से जशपुर-पत्थलगांव आने जाने वाले मंत्री ने पहली बार यह बात कहीं है कि कुछ लुटेरे सड़क पर खड़े होकर लोगों को लूटते रहते हैं। वहां कानून व्यवस्था के हालात बदतर हैं।

अपने विवादित फैसले के बावजूद मुख्यमंत्री इसलिए बधाई के पात्र हैं कि कम से कम उन्होंने सत्ताधीशों एवं प्रशासन को इस बात से रूबरू होने का मौका दिया है कि वे आम आदमी बनकर जरा उसके कष्टों का भी अनुभव करें। वैसे भी ऐसा हर फैसला जो भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही सत्तीधीशों तथा प्रशासन की शक्ति को कम करता दिखता है-आम जनता में लोकप्रिय होता है। यह फैसला भी एक लोकप्रियतावादी कदम से ज्यादा कुछ नहीं है। वरना क्या कारण है कि ‘सादगी के साथ जनसेवा’ का नारा देने वाली सरकार इस प्रतीकात्मक कदम को भी चुनाव वर्ष में ही लागू करती है ? यह निर्णय तो 2 वर्ष पूर्व भी लागू किया जा सकता था। अब जबकि सरकार ने इसका फैसला कर लिया है जब इसके अर्थ-अनर्थ सामने आ रहे हैं, जिस पर देर सबेर सरकार को सोचना ही होगा। खासकर ‘ला एण्ड आर्डर’ के लिए काम करने वाले प्रशासकों को इस फैसले से परेशानी होगी। पुलिस प्रशासन के लिए ये अनिवार्य जरूरत है। हालांकि मंत्रियों का इसके बिना काम चल सकता है-भले ही सबसे ज्यादा हाय-तौबा वे ही कर रहे हैं। वैसे भी जन प्रतिनिधियों को लालबत्तियों से नहीं, जनता से शक्ति अर्जित करनी चाहिए। उन्हें बत्तियां नहीं, लोग ताकत दें तभी उनका प्रतिनिधित्व सार्थक है।

दरअसल बत्तियों की बाढ़ ने की अर्थों में इनकी शक्ति का हास भी किया है और इन्हें सस्ता भी बनाया है। राजधानियों में रहने वाले अफसरशाहों-सचिवों का अमला जिस पर वास्तव में कोई मैदानी काम या ‘ला एण्ड आर्डर’ की जिम्मेदारी नहीं होती-नाहक बत्तियां लगाये फिरता था। फिर राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त लोग की फौज अलग है। इससे बत्तियों का दुरुपयोग और अवमूल्यन दोनों हो रहा था। फैसला यह सार्थक होता कि ‘ला एण्ड आर्डर’ से जुड़े अफसरों तथा विशिष्ट सत्ताधीशों के अलावा अन्य लोग इसका दुरुपयोग न कर पाते। फैशन के तौर पर विस्तार पाती ‘लालबत्ती संस्कृति’ को मर्यादित करना ज्यादा उपयोगी होता।

अब जब सरकार ने पूरी तरह से अपने तंत्र से लाल-पीली बत्तियां वापस ले ली हैं तो यह बेहतर होगा कि वह अपने मंत्रियों-अफसरों को एक डायरी भी दे और उनमें वे बिना बत्ती की गाड़ी के चलते मिलने वाले दुःख की कथाएं लिखें । वे हर अनुभव चाहे वह मार्गों पर पड़ने वाले थानों की दादागिरी के हों, शहरों के अस्त-व्यस्त ट्रैफिक के हों, सुरक्षा के या सड़कों की बदहाली के हों। इन अनुभवों के आधार पर शासन अपनी नीतियों में बदलाव लाए। ऐसी व्यवस्था खड़ी हो जो ज्यादा मानवीय और संवेदनशील हो।

लालबत्ती की ताकत से लोग डरते थे लेकिन सत्ता में यदि थोड़ी संवेदनशीलता आएगी तो उससे ज्यादा परिवर्तन दिखेगा। ‘लालबत्ती प्रसंग’ एक मौका है जिससे हम अपने शासन का चेहरा ज्यादा प्रिय बना सकते हैं। थानों के सामने ड्रम लगाकर अखंड वसूली करती पुलिस, बैरियर वालों की दादागिरी, हाइवे पर लोगों को लूटते लुटेरों के खिलाफ अभियान चला सकते हैं। फिर शायद किसी गृहमंत्री को यह न कहना पड़े कि ‘आखिर पुलिस को पुलिसिंग करने ही कहां दी जाती हैं ?’ ऐसे बेचारे जवाबों के बजाए हमारे पास समस्याओं के संदर्भ और उनके व्यवहारिक समाधान होंगे । हमारी यात्राएं सड़कें और आवागमन ज्यादा सुरक्षित और सुकून भरे होंगे।

(20 फरवरी, 2003)
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प्रतीक्षित है सामाजिक बदलाव का एक आंदोलन


मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अंततः राजनीति की नब्ज पकड़ ली है। जातीय सम्मेलनों के बहाने वे दरअसल अपनी जमान को पुख्ता करना चाहते हैं। महासमुंद का सम्मेलन इसका एक प्रस्थान बिंदु है, संकेत भी कि यह यात्रा अब रुकेगी नहीं।

म. प्र. पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने महासमुंद सम्मेलन के संदर्भ में यह कहकर कि ‘लोग छत्तीसगढ़ को उ.प्र. और बिहार बनाना चाहते हैं-’ मामले को अतिसरलीकृत करने की कोशिश की है। दरअसल मामला इतना सीधा नहीं है। दमित वर्गों में सत्ता की आकांक्षाएं जगाकर उसे स्वप्न दिखाकर ‘राजनीति’ कुछ भी उद्देश्य पाले-अंततः ये चीजें एक सामाजिक बदलाव का कारण तो बनती ही हैं। सामाजिक जागृति और राजनीतिक चेतना का सही रूप कभी भी घातक नहीं होता। छत्तीसगढ़ में सही अर्थो में एक बड़ा सामाजिक आंदोलन प्रतीक्षित है जो वास्तव में भूमिपुत्रों की आकांक्षाओं का सही प्रतिबिम्बन भी कर सके।

जातीय राजनीति को कोसने और कठघरे में खड़ा करने के बावजूद वह एक ‘राजनीतिक शक्ति’ के रूप में स्वीकार्यता पा रही है। सच कहें तो ताजा दौर की राजनीति में ‘जाति’ ही सबसे बड़ा ‘संगठन’ और ‘विचार’ बन गई है। इसलिए उसकी ताकत को नकारना और लांछित करना हकीकत से मुंह चुराने जैसा ही है। भारतीय उसकी ताकत को नकारना और लांछित करना हकीकत से मुंह चुराने जैसा ही है। भारतीय समाज व्यवस्था में जाति की ताकत पुरातनकाल से रही है और राजनीति अब इसकी शक्ति का इस्तेमाल कर रही है। छत्तीसगढ़ को ‘शांति का टापू’ जैसे विशेषणों से नवाज कर आप सत्ता से वंचित वर्गों को अब ज्यादा दिन भलावे में नहीं रख सकते । देर-सबेर इन सामाजिक दबावों को स्वीकारना ही पडे़गा क्योकि कोई चाहे न चाहे परिवर्तन की दिशा सदैव समय तय करता है।

जातीय सम्मेलनों के बहाने सामाजिक सुधारों के बजाय राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी की बात ज्यादा जोर से की जा रही है। असंतुलन का कारण यही है। बदलाव हवा में नहीं होते, उसे जमीनी समर्थन तथा समाज की स्वीकृति चाहिए होती है। सोशश इंजीनियरिंग के ‘अश्वमेघ’ का सब स्वागत करेंगे बशर्तें वह विद्वेष के रथ के साथ न आए । महात्मा गांधी, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, महात्मा फुले, संत गुरु बाबा घासीदास डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए इस प्रक्रिया को संचालित करते समय आवश्यक सावधानी बरतते हैं। वे अपने कार्यक्रमों को एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करते हैं। और अपने विचारों के पक्ष में लोक स्वीकृति चाहते हैं। वे सामाजिक बदलाव के प्रबल आग्रह के साथ-साथ विद्वेष की राजनीति से बचते हैं। दुखद यह कि आज की राजनीति में इतना श्रम,धैर्य, रचनाशीलता और इंतजार कहां है ? इसीलिए जातियों के नायक गढ़े और पूजे जाते हैं। पिछड़ों को साठ प्रतिशत हिस्सेदारी की बात डॉ. राममनोहर लोहिया ने 60 के दशक में करके एक ‘क्रातिकारी दर्शन’ दिया था और अपनी मांग के पक्ष में तार्किक बातें कहीं थीं। आज की राजनीति सैद्धांतिक आधार नहीं तलाशती बल्कि सत्ता की होड़ और दौड़ में मूल्यहीनता का संसार रचती है। शायद इसीलिए अजीत जोगी और श्यामाचरण शुक्ल हमें दो ध्रुवों पर खड़े दिखते हैं जबकि उनके दल एक हैं, विचारधारा एक है।

सामाजिक बदलाव के आंदोलन व्यापक लोकस्वीकृति से ही महान बनते हैं। छत्तीसगढ़ में यह प्रक्रिया जैसे और जिन परिस्थितियों में भी शुरू हुई है उसका स्वागत होना चाहिए किंतु राजनीति को भी चाहिए कि वह बदलाव की इस प्रक्रिया में पूरे समाज को शामिल करे और उसे विद्वेष की भेंट न चढ़ने दे। ऐसे सामाजिक आंदोलनों का उत्कर्ष देखना हो तमिलनाडु एक आदर्श हो सकता है जहां सबसे पहले ब्राम्हणों के खिलाफ दलित क्रांति ने एक सामाजिक आधार पाया और राजनीतिक सफलता भी। पक्ष-विपक्ष में अन्नाद्रमुक और वहां किसी रूप में सत्ता में हिस्सेदार नहीं हैं या कहे राजनीतिक तंत्र से बाहर हैं किंतु दलित आंदोलन की उत्तराधिकारी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री जयललिता जाति से ब्राम्हण हैं। गैर बराबरी खत्म होने के कारण आज वहां ‘जाति’के सवाल गौण हो गए हैं। राजनीति के क्षेत्र में मोर्चे खोलना आसान है लेकिन उसके बेहत्तर फलितार्थ पाना कठिन है, शायद छ्त्तीसगढ़ के लोग भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे होंगे।
(13 फरवरी,2003)
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आंखो में तैरते सपने


सपने सच हों या नहीं पर वे आंखों में तैरते जरूर हैं। युवा वर्ग तो खैर इन्हीं सपनों की दुनिया में जीता है- शायद इसीलिए वह सर्वाधिक ठगा भी जाता है। लेकिन अपने स्वाभाविक उल्लास और जोश से उनमें से कुछ लोग वह जमीन तोड़ने में सफल हो जाते हैं जिस पर परंपरा से कुछ खास लोग काबिज होते आए हैं। अपने गठन के लगभग डेढ़ वर्ष बाद छत्तीसगढ़ राज्य लोकसेवा आयोग के रिक्त पदों को भरने की जो कवायद शुरु की है वग युवाओं के जख्म पर मरहम की तरह ही है।

राज्य गठन की खुशियों व उत्साह के पीछे भूमिपुत्रों की यह सीधी आकांक्षा जुड़ी है कि उन्हें किसी न किसी क रूप में शासन से विशेष अवसर मिलेंगे और वे अपना भविष्य अपने हाथों से गढ़ सकेंगे । एक लोक कल्याणकारी राज्य वैसे भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और रोजगार जैसी जरूरतों को ध्यान में रखकर अपनी प्राथमिकताएं तय करता है।

राज्य में एक साथ की मोर्चों पर विकास के काम शुरू हुए और आकांक्षाएं भी उफान पर थीं। इस सबके बीच शहर चेहरे बदल रहे थे, सड़कें चकाचक हो रही थीं, पुराने भवन आलीशान दिखने लगे थे किंतु राज्य में भारी संख्या में भारी संख्या में उपस्थित युवाओं को लेकर कोई खास पहल कदमी न दिखी । युवा ठगे-ठगे से थे और अखबारों की टोह लेते रहते थे कि आखिर उनके अपने राज्य में भर्तियों का सिलसिला कब शुरू होता है-सो समय ठहर सा गया। अब सरकार ने नई भर्तियों के लिए आयु सीमा 35 वर्ष करके शायद इसी भूल का प्रायश्चित किया है।

इसके बावजूद जिस तरह शासकीय क्षेत्र का आकार सिकुड़ रहा है, नौकरियों के लिए दरवाजे तंग हो रहे हैं ऐसे समय में राज्य के युवाओं का एकटक सरकार की ओर निहारना क्या गहरा अवसाद और निराशा नहीं देगा। राज्य के युवा अपनी सरकार की और आशा से देखते हैं इसमें गलत क्या है ? पर क्या सरकार इन आकांक्षाओं को पूरा कर सकती ? उच्चशिक्षा प्राप्त युवाओं की तैयार फौज में वह कितने हाथों को काम दे सकती है ? अवसाद का सेतु यहीं है-बदलती दुनिया के बावजूद हमारी उम्मीदें सरकारों पर कायम हैं। एक सरकारी नौकरी की तलाश, भले ही वह कितनी भी गई गुजरी क्यों ने हो एक नौजवान के जीवन के कितने स्वर्णिम साल होम कर देती है लेकिन यह मृगमरीचिका हमें तब कर दौड़ाती है जब तक कि हम बेसुध होकर गिर नहीं जाते । गांवों के उजड़ने से वैसे भी पारंपरिक गृहउद्योग तथा कलाएं नष्ट प्राय हैं, जो बची हैं उन्हें प्रोत्साहन देने या सकी मार्केटिंग करने का कौशल नहीं है। छत्तीसगढ़ राज्य के युवा शायद उस कौशल से भी वंचित है जिनकी मांग गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां करती हैं।

पढ़ाई से लेकर हमारे सामाजिक ढांचे में कहीं न कहीं एक दब्बूपन-पिछड़ापन मिश्रित हीनता बोध कायम है। इसे तोड़ने की कोई पहल नहीं दिखती । शायद इसलिए हम और हमारे युवा सुरक्षित क्षेत्र तलाशते हैं। ज्ञान-विज्ञान के नए अनुसासनों, चुनौती पूर्ण कैरियर की तरफ अरुचि और माहौल का अभाव दोनों दिखता है। नई बाजार व्यवस्था में जैसे कौशलपूर्ण ज्ञान की मांग की जा रही है उसमें छत्तीसगढ़ के युवा कहां ठहरते हैं ? सरकारी क्षेत्र आखिर कितनी आकांक्षाओं को आकाश दे पाएगा। उच्चशिक्षा को लेकर हमारी गंभीरता इसी से जाहिर है कि किस तरह कालेजों को मान्यता दी जा रही है और उनमें क्या पढ़ाया-सिखाया जा रहा है। भाषा, तकनीक, शिक्षा हर मोर्च पर दोयम दर्जें की पीढी लाकर हम कैसा छत्तीसगढ़ बनाएंगे ? संकल्प और हौसले भर से सपने पूरे नहीं होते- साधन, वातावरण और संस्थान भी व्यक्तित्व को गढ़ने में अपनी भूमिका निभाते हैं। राजनीतिक दलों के छात्र-युवा संगठन भी इन चुनौतियों पर चुप रहते हैं-उसकी आवाज भी अपने राजनेता के जयकारों से आगे नहीं आती । ऐसे कठिन समय में राज्य के युवाओं के सामने चुनौतियां बहुत हैं किंतु उसने पार जाने का रास्ता बहुत तंग है। युवाओं की ऊर्जा के रचनात्मक इस्तेमाल पर हमारी दृष्टि आज न गई तो कल बहुत देर हो जाएगी ।

(6 फरवरी, 2003)
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हैलो, आपको क्यों नहीं दिखता वाड्रफनगर ?


भारतीय राजनेताओं की यह खूबी है कि वे किसी भी गंभीर सवाल को इतना हल्का बना देते हैं कि समस्या के समाधान या उस पर चिंतन के मार्ग ही बंद हो जाते हैं। आप देखें तो वाड्रफनगर में हुई मानवीय त्रासदी, जिसके हिस्से अब तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत दर्ज की जा चुकी है-राजनेताओं के लिए सिर्फ छिछोरी बयानबाजी का अखाडा बन जाती है।

वाड्रफनगर में जो हुआ वह सही में ऐसा कुछ नहीं हैं जिस पर हाय-हाय कर मातम मनाया जाए क्योंकि यह छत्तीसगढ़ है, जहां सालों से लोग चिकित्सा के अभाव में मरते आए हैं । इस समय मौसम में होने वाली मौतों, पलायन या अकाल की चुनौतियां हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं। चीजें इतनी ‘रूटीन’ हैं कि न मौत रूलाती है, न पलायन दुखी करता है, न ही अकाल से किसी का कलेजा फटता है। ये बातें तब भी थीं जब हम एक बड़े, प्रदेश के अंग थे-यह गरीब परिवारों के दुखों को समझने वाले को समझने वाले को अपना मुखिया बना चुके हैं। वाड्रफनगर की घटनाएं बताती हैं कि अभी कुछ भी नहीं बदला है। राजनेताओं के लिए इन मौतों का मतलब सिर्फ इतना है कि लाशें कितनी हैं। प्रदेश के सत्तारूढ़ दल के लोग आपसे 41 लोगों की मौत की जिक्र करेंगे। भाजपा की सूची में 111 लाशें दर्ज नजर आएंगी। यह ऐसी बहस है जो गलीज भी है और संवेदनहीन भी ।

हम लाशें गिन रहे, समाधान के उपाय नहीं कर रहे । दिल्ली से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री आ जाते हैं, हमारे प्रदेश के मुखिया वाड्रफनगर नहीं पहुंचा पाते। मानवाधिकार आयोग इन घटनाओं पर चिंचित है, राजनेता लाशों की आंकड़ेबाजी में व्यस्त हैं। अब अगर आपसे कोई पूछे कि क्या इसीलिए छत्तीसगढ़ बनाया था तो आपको बुरा नहीं मानना चाहिए ।

यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि किसी नेता के प्रभावित इलाके में जाने न जाने को भी मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। जैसे कि कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल ने बिलासपुर में पत्रकारों से पूछा ‘जोगी वाड्रफनगर क्यों नहीं जाते ?’ लेकिन प्रदेश की राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोगों से यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि वे अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ चीजों को देखें तथा कम से कम अपने व्यवहार से ऐसा तो प्रदर्शित करें कि वे संबंधित विषय पर खासे गंभीर हैं। मुखिया की संवेदना का, उसकी चिंताओं का पूरा प्रशासन पर असर दिखता है। जाहिर है वाड्रफनगर जैसे इलाके हमारी प्राथमिकताओं का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। क्योंकि ये किसी राजनेता के लिए, जनसंगठन, सामाजिक संगठन के लिए कोई खास ‘स्पेस’ नहीं बनाते । मीडिया की भी प्राथमिकताएं वाड्रफनगर की त्रासदी को देखने की अलग सी हैं। आप कल्पना करें वाड्रफनगर का यह क्षेत्र मुंबई, दिल्ली, भोपाल,लघनऊ के आसपास होता तो क्या हम इतने ही लापरवाह बने जुबानी जमा खर्च से काम चलाते रह सकते थे । त्रासदी हर जगह होती है। गुजरात दो वर्ष में3 वर्ष बड़ी त्रासदी का शिकार हुआ है। प्लेग, तूफान, भूकंप सब उसके हिस्से लिखे जा चुके हैं। लेकिन वेबार-बार त्रादसी से उपजीचुनौतियों को धता बताकर उबर आते हैं। एक त्रासदी के खिलाफ लाखो-करोड़ो हाथ मदद के लिए बढ़ते हैं। यह वातावरण बाहर के लोग नहीं बनाते । उसके अपने लोग, उनकी अपनी राजनीतिक पीढ़ी, उनके व्यापारी, समाजसेवी सब हाथ लगाते हैं। राख बने शहर फिर से धड़कने लगते हैं।

यही जिजीविषा उन्हें दुनिया के हर कोने में सफल बनाती है। छत्तीसगढ़ के हिस्से बहुत बड़े दुख नहीं हैं। भगवान करे आएं भी नहीं । लेकिन यहां ‘भागीरथ’ जरूर कम है जो विकास की, मदद की, सेवेदना की पुण्यसलिला बहाकर इस राज्य को तेजी से निजात राज्य का दर्जा दिला सकें । मप्र के साथ रहते हम यह कहकर तमाम संकटों से निजात पा लेते थे कि मध्य भारत के लोग हमारी उपेक्षा करते हैं। आज हम तमाम संकटों से घिरे हैं लेकिन झूठे तसल्ली देने लायक जवाब भी हमारे पास नहा है। वाड्रफनगर की त्रासदी ने सही अर्थों में हमारे राजनीतिक दलों, जनसंगठनों, समाज सेवी संगठनों, सामाजिक समूहों की संवेदना और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। लेकिन हम सिर्फ उंगलियां दिखा रहे हैं । पर सोचिए एक उंगली हम किसी की ओर दिखाते हैं तो कई उंगलियां हमारी ओर भी उठाई जा रही हैं। हमारी, आपकी, सबकी ओर ।

(2 सितंबर, 2001)
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