व्यावहारिक मोहब्बतें और मौखिक नफरतें
भारत का समूचा आर्थिक चिंतन इस समय विदेशी बनाम स्वदेशी की धुरी पर केंद्रित है। सत्ता में बैंठीं जमातें मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरोकार हैं तो जमीनी संघर्ष में लगे जनसंगठन, समाज वादी विचारों के लोग ही नहीं घुर दक्षिणपंथी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग भी स्वदेशी का मंत्रजाप कर रहे हैं। कांग्रेस के जिन नेताओं ने उदारीकरण की इस मुहिम की शुरूआत की थी, वे भी सत्ता से बाहर होते ही प्रायश्चित भाव में यह कहने लगे हैं ‘हमने तो सिर्फ खिड़कियां खोली थीं उन्होंने (भाजपा) तो दरवाजे ही उखाड़ डाले। ‘कांग्रेस पार्टी से भी अब इस प्रक्रिया(उदारीकरण) को मानवीय चेहरा देने की आवाजें तेज होने लगी हैं। जाहिर है, हर राजनीतिक विचारधारा एवं संगठन स्वदेशी और उदारीकरण को लेकर खासे द्वंद में हैं। भ्रम का धूंधलका इतना गहरा है कि बुनियादी सवालों पर बातचीत बंद है।
एक आंधी की तरह सरकार ने दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों की शुरुआत कर दी। इस प्रक्रिया में उदारीकरण के पहले चरण की समीक्षा और उसके भारतीय जनजीवन पर पड़े प्रभावों की चर्चा भी नहीं की थी। आश्चर्य, यह काम वे लोग कर रहे थे जो ‘स्वदेशी’ की नारेबाजियों, हूंकारों और ललकारों में सबसे आगे थे, जिन्होंने एनरान, बीमा बिल सहित कई मुद्दों पर पूर्ववर्ती सरकारों को खासा परेशान किया था। क्या सत्ता में बैठकर सोचने और सत्ता से बाहर रहने पर सोचने के अलग-अलग मानक होते हैं ? यह सवाल आज हर देशवासी के सामने खड़ा है। उसका जवाब भी पता है। यह साफ दिखता है कि विदेशी पूंजी से हम बेइंतहा मोहब्बत करते हैं, क्योंकि यह हमें व्यावहारिक लगता है। हमें लगता है कि यह अपरिहार्य है और इसके बिना भारत का प्रतियोगितात्मक विकास संभव नहीं है। वहीं इस बात को लोगों को समझाने के बजाय विदेशी पूंजी के प्रति मौखिक नफरत भी दिखाते हैं। उदारीकरण के रथ के वाहक यशवंत सिन्हा भी इसी दबाव के चलते अपने हर बजट को स्वदेशी की भावना से प्रेरित बताते हैं और वाजपेयी भी अपने ‘बड़े बम’ (पोखरण विस्फोट) को ‘स्वदेशी का प्रतीक’ बताने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। इन नारेबाजियों के बीच एक ओर मुक्त अर्थव्यवस्था के तर्क हैं, विदेशी कंपनियों को भारत में मनमाने ढंग से व्यापार करने के पक्ष में दिए जा रहे पैंतरों पर बताए जा रहे मासूम कारण हैं और विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए अतिरंजित लिप्साएं हैं। दूसरी ओर मुक्त अर्थव्यवस्था का विरोध कर रही ताकतों निवेश का भी विरोध जारी है। इस पूंजी के भारतीय अर्थव्यवस्था में बढ़ते वर्चस्व के प्रति चिंताओं एवं चेतावनियों के स्वर प्रखर हो रहे हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि दोनों अतिरेकों में हम कोई संतुलित आर्थिक चिंतन या नीति का आविष्कार करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। व्यापहारिक मोहब्बतों और मौखिक नफरतों के बीच हमारे दिशावाहक जब मोहब्बत के ‘मूड’ में होते हैं तो ढेरों कारण गिना जाते हैं। जब नफरत के ‘मूड’ में होते हैं तो इसके तमाम दुर्गुणों को गिना डालते हैं। इसके चलते आने वाली आर्थिक गुलामी का खतरा बताते हैं और इसके सामाजिक दुष्परिणामों पर आंसू बहाते हैं। इस सबमें स्वदेशी की मूल भावना छूट ही नहीं जाती, चोटिल भी होती है। आज स्वदेशी को लेकर सही समझ न पैदा करने के कारण स्वदेशी का नाम लेते ही तमाम लोगों का मुंह कसैला हो जाता है। मोटे अर्थ में स्वदेशी का मतवब है भारत की अर्थव्यवस्था देश की अपनी पूंजी से, अपने संसाधनों से, अपनी प्रौद्योगिकी और अपने श्रम से निर्मित हो। स्वदेसी की भावना एक ऐसी आंतरिक अर्थव्यवस्था की बात करती है, जो उत्पादनशील हो, इतनी गुणवत्ता प्रधान हो कि विश्व अथर्व्यवस्था में, उसकी प्रतियोगिता में खड़ी हो सके। साथ ही इतनी आवेगपूर्ण हो कि तमाम तरह के बाहरी दबावों को राष्ट्रहित में झेल सके। देखने में तो यह परिकल्पना और विचार बहुत ही प्रेरक और लुभावने लगते हैं, लेकिन इस परिकल्पना को ठोस यथार्थ की जमीन पे उतारने के लिए जिस चरित्र, संकल्प एवं नैतिक बल की जरूरत होती है वह जिम्मेदारी, संवेदनशीलता और राजनीतिक, सामाजिक कल्पना शीलता हम में सिरे से गायब दीखती है। स्वदेशी का सपना सही अर्थों में सिर्फ नारेबाजियों की नहीं सभी मोर्चों पर युद्ध जैसी तत्परता की मांग करता है। ऐसी सतत मेंहनत और असंदिग्ध ईमानदारी क्या हम भारतीयों के पास है ? अगर यह हम नहीं कर सकते तो हमारे स्वदेशी के संकल्प और नारों का व्यावहारिक मूल्य क्या है ? जब हमने खुद को ‘विश्व बाजार का बैल’ बना लिया है तो हमारे अपने सपनों, स्वाभिमान, नैतिकता और स्वातंत्र्य चेतना का मोल क्या है। सही अर्थों में आज स्वदेशी से पहले हमें अपनी सोच एवं चरित्र को संवेदनशील और जनधर्मी बनाना होगा। हमारे लक्ष्यों एवं आकांक्षाओं को समाज परक बनाना होगा। यानी रास्ता गांधी की ओर जाता है। उन्होंने यह बात हमें बहुत पहले ही बता दी थी।अपने किसी काम को करने से पहले उसके चलते अंतिम व्यक्ति पर पड़ने वाले प्रभाव की बात करके गांधी ने हमें यही समाजपरकता और जनधर्म सिखाया था । लोहिया ने ‘लोकजाल’ की बात की थी। दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के दर्शन के बहाने ‘दरिद्र नारायण’ की सेवा की बात कहीं थी । लेकिन हमने इन्हें इनके विचारों के साथ मूर्तियां बनाकर उन पर मालाएं चढ़ा दीं। स्वदेशी की लड़ाई दरअसल भारत और इंडिया के बीच जीवनशैली व जीवनमूल्य की लड़ाई है। स्वदेशी की बात बैलगाड़ी के युग में लौटना नहीं है। अपने सामर्थ्य पर भारत को बड़ा और खड़ा करना है। स्वदेशी एक व्यापक अवधारणा है, वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिबिंबित होने वाले एक जीवनदर्शन का नाम है। वह राष्ट्रीय अस्मिता और आत्मबोध का मंच है। स्वदेशी के व्यापक लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए सही अर्थों में ‘हम भारत के लोग’ अभी न मन से, न साधनों से तैयार हैं। इसके लिए नारेबाजियों एवं बौद्धिक जुगालियों से ऊपर उछकर एक वैकल्पिक अर्थनीति तलाशनी ही होगी, जो भारत के आखिरी आदमी को केंद्र में रखकर बने और भारत को सही अर्थों में विश्वशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। जब तक ऐसा न होगा विदेशी पूंजी के प्रति राजनेताओं की व्यावहारिक मोहब्बतों और मौखिक नफरतों का द्वंद जारी रहेगा।
(26 नवंबर,2000)
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