यह दर्द लाइलाज


आजादी के बाद से ही कश्मीर के भाग्य में चैन नहीं है, जैसे-तैसे भारत विलय के बाद से आज तक वह लगातार खूनी संघर्षों का अखाड़ा बना हुआ है। सही अर्थो में भारत के अप्राकृतिक विभाजन का जितना कष्ट कश्मीर ने भोगा है, वह अन्य किसी राज्य के हिस्से नहीं आया। दिल्ली के राजनेताओं की नासमझियों ने हालात और बिगाड़े, आज हालात ये हैं कि कश्मीर के प्रमुख हिस्सों लद्दाख, जम्मू और घाटी तीनों में आतंकवाद की लहरें फैल चुकी हैं। इनमें सबसे बुरा हाल कश्मीर घाटी का है, जहां सिर्फ सेना को छोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोलने वाला कोई नहीं है। आखिर इन हालात के लिए जिम्मेदार कौन है ? वे कौन से हालात हैं वे कौन लोग हैं जो पाकिस्तान षड्यंत्रों का हस्तक बनकर इस्लामी आतंकवाद की लहर की सवारी कर रहे है। हालात इतने कैसे बिगड़े, जाहिर है, उंगलियां दिल्ली की ओर ही उठेंगी । आज जब फारुख अब्दुल्ला स्वायतत्ता की बात करते हैं तो वे इतिहास के चक्र को 1953 में वापस ले जाना चाहते हैं। जब ऐसी ही मांगें उठाने के कारण उनके अब्बाजान शेख अब्दुल्ला को काफी समय जेल में बिताना पड़ा था। फारुख का यह नया नारा भले ही राजनीतिक मजबूरियों की उपज हो लेकिन उसने केंद्र की सरकार को संवाद के लिए बाध्य तक दिया है। यह बाध्यता सिर्फ बात की नहीं, वरन किसी परिणाम तक पहुंचने की भी है। इतिहास की उस घड़ी में हम जा खड़े हुए हैं जहां ‘एक देश में दो प्रधान, दो विधान नहीं चलेंगे’ का नारा देने वाले जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी केंद्र में बैठे हैं तो शेख अब्दुल्ला के पुत्र फारुख कश्मीर के प्रांतीय शासन के मुखिया हैं। यहां यह तथ्य भी खासा रोमांच जगाता है कि प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, डॉ. मुखर्जी की कश्मीर यात्रा और बाद में उनकी शहादत के चलते ही राजनीति में आए । वे उस यात्रा में एक पत्रकार के तौर पर शामिल थे। लेकिन ये बातें अब मायने नहीं रखतीं। धारा 370 के घोर विरोधी अब स्वायत्तता पर भी संवाद बातचीत चला रहे हैं। ये बातें गवाह हैं कि कश्मीर आज हमारी सबसे कमजोर कड़ी है। जहां एक गलत कदम भी हमें अंधेरी सुरंग में धकेल सकता है।

आज हालात जितने भी बुरे हों, हम कश्मीर विहीन भारत की कल्पना भी नहीं कर सकते, इसलिए कश्मीर मसले से जुड़े हर पक्ष के साथ हमें संवेदनशीलता से पेश आना होना। कश्मीर को राजनीति और तिकड़मों से नहीं सुधारा जा सकता । यह हमने चुनी गयी सरकारें गिराकर तथा केंद्र के कठपुतली मुख्यमंत्रियों तथा राज्यपालों को बिठाकर दिख लिया है। सेना की सीमाएं क्या हैं, यह भी हमने देख लिया है। सारी कवायदों के बावजूद, जगमोहन की उपस्थिति में भी कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ना पड़ा था, इसलिए कश्मीर के प्रसंग पर हमारी पराजय के संदेश बहुत खतरनाक होंगे और एक राष्ट्र-राज्य के रूप में हम अपनी विफलता का इतिहास अपने ही हाथों से लिख रहे होंगे । यह पराजय सिर्फ दिल्ली में बैठी सरकार की नही होगी, पराजय देश की 1 अरब जनता की होगी। हमारे उस इतिहास की होगी जो सालों-साल कश्मीर को अपने मुकुट और ‘धरती के स्वर्ग’ के रूप में अपनी स्मृति में रखता आया है। हम कश्मीर में अपनी पराजय से इस्लामी कट्टरवाद के सामने समर्पण का इतिहास लिखेंगे । इसलिए कश्मीर को कैसे भी बचाना देश के राजनीतिक नेतृत्व और जनता की इतिहास लिखेंगे । इसलिए कश्मीर को कैसे भी बचाना देश के राजनीतिक नेतृत्व और जनता की जिम्मेदारी है । यह हार हमें विश्व मंच पर मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगी । इस्लामी कट्टरपंथ की यह जीत समूचे उप-महाद्वीप में सांप्रदायिक विद्वेष की लपटों का कारण बनेगी। भारत में रहने वाले हिंदू-मुस्लिमों के रिश्तों की बुनियाद इससे हिल जाएगी । देश के हिंदू-मुसलमानों को इस खतरे को समझना होगा। किसी ‘राजनीतिक एजेंडे’ के आधार पर नहीं, दिनायतदारी के आधार पर हमें कश्मीर का माथा झुकने नहीं देना है। जाहिर है, भारत को अपनी लड़ाई का आधार अब इस्लामी कट्टरंपंथ से संघर्ष को बनाना होगा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद सही अर्थों में कुंठा और अराजक मानसिकता से प्रेरणा पाता है। उससे कश्मीरी मानस के हितलाभ की कोई सोच जुड़ी हुई नहीं है। भारत को यहीं चोट करनी होगी। अपने राजनीतिक एजेंडों से परे कश्मीर को एक विशेष विमर्श का हिस्सा मानकर हमें समाधान के रास्ते तलाशने होंगे । जाहिर है, इसके लिए ‘संघ परिवारी अतिवाद’ और ‘फारुख का कड़ा रुख’ दोनों बाधक हैं। हमें नरमी और सौजन्यता के साथ इस सवाल पर बात करनी चाहिए। फारुख अब्दल्ला सरकार के प्रस्ताव ने इसके लिए मौका भी उपलब्ध करा दिया है। इस मौके को चुककर हम एक और अवसर से छूट जाएंगे । प्रधानमंत्री, गृहमंत्री ने इस प्रसंग पर जैसी संयम भरी प्रतिक्रियाएं दी हैं, वे सुखद भविष्य का संकेतक तो हैं ही और कश्मीर के लाइलाज हो चुके रोग का इलाज साबित हो सकती हैं।
(23 जुलाई, 2000)
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