जीतने का जुनून जगाएगा


जिस समाज ‘पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब, खलोगे, कूदोगे होगे खराब’ का मंत्र जाप कर नई पीढ़ी में खेलों के प्रति अरुचि जगाने का काम एक संस्थागत रूप ले चुका हो, उस देश से ओलंपियन कैसे पैदा हो सकते हैं। खेल दरअसल हमारे जीवन का हिस्सा ही नहीं है। वह चंद अभिजात्यों के ‘शौक’ की चीज है। पढ़-लिखकर ‘क्लर्क’ बनना इस समाज को भाता है, गिल्लियां चिटकाते, गलियों में क्रिकेट या फुटबाल खेलते युवा हमारी आंखों में चुभते हैं। गोया ये पढ़ने-लिखने की उमर में खेल-कूद में अपना समय जाया कर रहे हों, असल भारतीय मन का चिंतन यही है। एक आम हिंदुस्तानी का मानस यही है। इस चिंतन में बदलाव लाने की कोशिशें भी नदारद हैं। खिलाड़ियों को नौकरियों में मिलते आरक्षणों/ प्रोत्साहनों के बावजूद खेल हमारी आम भारतीय परिवार परंपरा में सम्मान नहीं पा सका है। मुठ्ठी भर खानदानी परिवारों या शौकिया रूझानों के बल पर आखिर देश की श्रेष्ठ खेल प्रतिभाओं को कैसे पहचाना जा सकता है। जहां तक इन खेल उत्सवों में सक्रियता से हमारी भागीदारी से जुड़ा सवाल है, वह भी हमारे भारतीय मानस की मनोभूमि से जुड़ा है। हम भारतीय दरअसल बहुत उत्सवधर्मी हैं। ढोल-तमाशे और उत्सव हमें बहुत भाते हैं। ये रात-दिन जीवन के संघर्षों से जूझते लोगों के लिए ‘आनंद के क्षण’ लेकर आते हैं।‘आनंद का दिन’ बीता और दिनचर्या फिर पुरानी पटरी पर लौट आती है। खेलों के साथ भी ऐसा ही है। वे भी हमारे उत्सव हैं-वे हमारी परंपरा या लोकजीवन का हिस्सा नहीं है। इसीलिए उनका कोई पूर्वापर नहीं है, कोई तैयारी नहीं है। उत्सव के बाद नए उत्सव का इंतजार । इस बीच के फासले का उपयोग रणनीति, तैयारी और रचना के लिए नहीं होता। इस त्यागभूमि को सोने-चांदी के तमगे आकर्षित नहीं करते । हम तो उत्सवधर्मी हैं-उत्सव में शामिल हो, लोगों के आनंद का विषय बनकर लौट आते हैं। खेलों के सभी आयोजन हमारी इसी पराजय कथा का विस्तार हैं। पराजय हमें हिलाती नहीं, झकझोरती नहीं, जीतने का जुनून नहीं लगाती । हम हार-जीत को ‘समभाव’ से लेने वाले लोग हैं। आप मैदान से हटकर जीवन में झांके तो भी हमारा यही चेहरा दिखेगा। आम हिंदुस्तानी आपको कभी हंसता नहीं दिखता। हमारे समाज-जीवन में ‘हास्य’ की कोई जगह नहीं है। यही अकारण नहीं है कि हमारी फिल्मों ले लेकर साहित्य तक में हास्य कलाकार-लेखक को दोयम दर्जा प्राप्त है। हास्य की कोई परंपरा आपको देखने को नहीं मिलेगी । लेकिन जो हंसी हम जीवन में न उतार पाए उसके लिए भी दिन नियत है- ‘होली का’ । हम उसी दिन हंसते हैं, भाव-विभोर होकर नाचते हैं, अपनी साल भर से दबी विद्रूपताएं निकालते हैं। फिर साल भर के लिए मनहूस बन जाते हैं। जीवन के हर क्षेत्र में हमारा यह दोहरापन बरकरार है। हम नायक तलाशते हैं-सचिन में, धनराज पिल्लै में, पेस और भूपति में। क्योंकि ये हमारे खेल उत्सवों की शोभा बढ़ाते हैं। लेकिन क्या हम अपने समाज में ऐसे ‘हीरो’ पैदा होने की स्थितियां बना पाए हैं ? आम भारतीय परिवार का दृष्टिकोण बदल पाए हैं ? सुरक्षित रास्तों और सुनिश्चित भविष्य का इंतजार करने वाली कौमें इतिहास नहीं बनातीं । ‘नायक पूजा’ के अभ्यासी इस देश कें नायक तभी पैदा होंगे, जब परिस्थितियां होंगी। यह अकारण नहीं है आपकी क्रिकेट टीम में मुंबई और कर्नाटक के अलावा पहले परिवार में, फिर समाज में उपलब्ध कराना होगा। फिर सरकार का दायित्य शुरू होता है, इस काम में शिक्षण संस्थाओं से प्रारंभ करके कैसे वे खेल प्रतिभाओं के विकास एवं संवर्धन में सहयोगी बनते हैं यह महत्व का विषय है। खेल में एक ‘युद्ध’ है। बस इसमें हथियारों की जगह खेल सामग्री का उपयोग होता है और जब यह खेल दो देशों के बीच हो तो यह ‘धर्मयुद्ध’ बन जाता है। लेकिन ऐसे युद्ध सिर्फ जुनून से जीते जाते हैं। अकेला खिलाड़ी नहीं समूचा देश, उसका परिवेश उसके पीछे हो तो यह जुनून ही जीत दिलाता है।

खेद हम यह ‘खेलधर्म’ विकसित करने में तो विफल रहे उसकी जगह हमने ‘खेल राजनीति’ और ‘फिक्सिंग’ जैसे रोग जरूर सीख लिए । खेल को ‘उत्सव धर्म’ के बजाए ‘राष्ट्र धर्म’ बनाइए । मैदान में खेलते खिलाड़ी सीमा पर लड़ते सैनिक वस्तुतः एक ही काम कर रहे हैं। दोनों की जीत देश के जनमन का हौसला बढ़ाती है। इन्हें सिर्फ कारगिल और ओलंपिक पर ही मत याद कीजिए । इनके स्मरण को, इनकी निष्ठा को, इनकी साधना को इस्तकबाल की जिए। सिर्फ अतीत पर गर्व करके मत फूलिए-वर्तमान को सिर-माथे बिठाइए। भारतीय खेल प्रतिभाएं हर जगह आपको सम्मान दिलाएंगी। लेकिन यह सपना पूरा तभी होगा जब जगेगा जीतने का जुनून और वही समय भारतीय खेल जगह के लिए सौभाग्य का क्षण होगा । तब खेल हमारे ‘उत्सव’ भर नहीं हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगे और शायद तब हम नाउम्मीदियों से भरे नहीं होंगे ओलंपिक के प्रसंग पर हम अपनी खेल चिंताओं का विस्तार कर भविष्य की रणनीति बनाएं तो बेहतर पाए जा सकते हैं।

(10 सितंबर,2000)
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