राजनाथ सिंह की ताजपोशी का अर्थ
भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में राजनाथ सिंह की नियुक्ति ने यह साफ कर दिया है कि पार्टी उ.प्र. में आत्महत्या पर उतारू है। एक अतीतजीवी पार्टी होने के नाते भाजपा को ऐसे फैसले बहुत रास आते हैं। 1989 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति जिस तरह सामाजिक न्याय की ताकतों की लीला भूमि बनी हुई है, लगता है उस बदलाव का पार्टी को जरा भी अहसास नहीं है। पार्टी अभी भी आठवों दशक के सामाजिक समीकरणों के आधार पर सत्ता के ख्वाब देख रही है, जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में उ.प्र. की राजनीति एन.डी. तिवारी, वी. पी. सिंह, श्रीपति मिश्र, वीरबहादुर सिंह के आगे नहीं बढ़ पाती थी। लेकिन 90 के दशक में उ.प्र. की राजधानी में बहने वाली गोमती नदी ने अनेक बदलाव देखे हैं। वी. पी. सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई जंग ने कैसे सामाजिक न्याय की शक्तियों के रुप में वहां की राजनीति में जगह बनाली, यह एक रोचक अध्ययन का विषय हो सकता है, मुलायम सिंह यादव, मायावती, सोनेलाल पटेल, कल्याण सिंह को नेतृत्व देना दरअसल उनके पिछड़े वर्ग से आने के कारण भी था। भाजपा ने उका ऐसा ही इस्तेमान भी किया। वे मुलायम सिंह और मायावती दोनों के लिए चुनौती बनकर उभरे। लेकिन ऊर्जा के रचनात्मक इस्तेमाल में संघ परिवार की विफलता कल्याण सिंह प्रकरण में उजागर हुई। गुजरात में वह शंकर सिंह बाघेला के रूप में पहले ही साबित हो चुकी था। लेकिन भाजपा की गलतफहमियां और जनता के बीच चल रही हलचलों से अनभिज्ञ उसके नेतृत्व ने कल्याण सिंह का विकल्प जब रामप्रकाश गुप्त में देखा । उसी समय भाजपा की विवशताएं जाहिर हो चुकी थीं। सामाजिक समीकरणों के लिहाज से कुर्मी जाति से आने वाले ओमप्रकाश सिंह की ताजपोशी राज्य भाजपा अध्यक्ष के रूप में करके भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की कि उसे सामाजिक समीकरणों का ख्याल है। किन्तु अतीतजीवी दल लौटकर वहीं आ जाते हैं जहां से उन्होंने शुरूआत की थी। बाद में राज्य अध्यक्ष के चुनाव में भाजपा आलकमान ने अपनी प्रतिष्ठा झोंकी और निर्विंरोध चुनाव कराकर कलराज मिश्र की ताजपोशी करवा दी । अब बचे राजनाथ सिंह को राज्य का मुख्यमंत्री पद भी दे दिया गया है। विधानसभा अध्यक्ष के रूप में केसरी नाथ त्रिपाठी एवं उ.प्र. से सांसद प्रधानमंत्री अचलबिहारी वाजपेयी और उनके ‘खास’ लालजी टण्डन ये पांच मूर्तियों होंगी जिनके नेतृत्व में राज्य में छह माह बाद होने वाले विधानसभी चुनावों में भाजपा दो तिहाई बहुमत मांगने के लिये जनता के बीच जाएगी।
अटलजी, राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र ,केसरीनाथ त्रिपाठी और लालजी टण्डन इन नामों में यदि एक बड़ा नाम और जोड़ लें तो वे हैं डॉ. मुरली मनोहर जोशी, यह राज्य में भाजपा का चेहरा है। अब कल्याण सिंह यह कहें कि “मैं पिछड़ा था इसलिए मुझे साजिश कर अब कल्याण और कलराज मिश्र ने हटवाया । क्योंकि वे खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे।” तो क्या उनका बयान जनता को अपील नहीं करेगा ? एक तरफ बंगारू लक्ष्मण को अध्यक्ष के रूप में स्वीकार कर भाजपा ‘सामाजिक अभियांत्रिकी’ के अपने नारे को अमलीजामा पहनाने का स्वप्न देखती है, वहीं उत्तर प्रदेश में उसकी सामाजिक अभियांत्रिकी ‘ब्राह्मण-ठाकुर’ नेतृत्व पर समाप्त हो जाती है। जाहिर है भाजपा उ.प्र. में अपने तेजी से सकते जनाधार को लेकर चिंतित है, लेकिन क्या ये सनक भरे फैसले क्या यह मान लेने को विवश नहीं करते कि भाजपा ने आगामी विधानसभा चुनावों का मैदान मुलायम सिंह और मायावती के लिए छोड़ दिया है। अब वे जैसे-तैसे इस आस में हैं कि चुनाव पूर्व या पश्चात बसपा के साथ तालमेंल कर सरकार बना लें। जाहिर है ऐसी मानसिकता के साथ भाजपा अपने सामाजिक आधार को और कमजोर करेगी । आज भी उ.प्र. में सवर्ण जातियों के अलावा पिछड़ों के मतों का बड़ा प्रतिशत कई क्षेत्रों में उसे संबल देता है। पश्चिम में कुछ क्षेत्रों में जाट, कुर्मी और जाटव उसे आधार देते हैं तो पूर्वी क्षेत्रो में कुर्मी, कुछ दलित जातियां उसे मजबूती देती हैं। पश्चिमी उ.प्र. संतोष गंगावार (बरेली), प्रेमलता कटियार (कानपुर), अशोक यादव, दर्शन सिंह यादव, हुकुम सिंह, संघप्रिय गौतम जैसे नेता अपने वर्गों में भाजपा की अपील बनाते हैं तो पूर्वी उ.प्र. में विनय कटियार, श्रीराम चौहान, धनराज यादव, रामकुमार वर्मा, पंकज चौधरी, ओमप्रकाश सिंह, राजनारायण पासवान जैसे नाम उसके पास हैं, किंतु संगठनात्मक मोर्चे पर चुनाव न जीत सकने वाले या कभी चुनाव न लड़े नेता भाजपा आलाकमान की पसंद हैं।
उ.प्र. भाजापा के वर्तमान प्रमुख कलराज मिश्र ने आज तक कोई चुनाव नहीं जीता है, न ही लड़ा है। राजनाथ सिंह जिसके नेतृत्व में भाजपा चुनावी समर में उतर रही है भी अटलजी के संसदीय क्षेत्र में पड़ने वाले महोना विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए थे। संप्रति वे राज्यसभा के सदस्य हैं। जाहिर है ये संदर्भ जमीनी कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ने का काम करते हैं।
ध्यान दें तो राज्य भाजपा अध्यक्ष के रूप में अपनी ताजपोशी के समय ही राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री का पद पाने के सपने देखने शुरू कर दिए थे । उस की परिणति कल्याण सिंह के पार्टी के सामने तमाम चुनौतियां हैं। पार्टी को मायावती, कल्याण सिंह और मुलायम सिंह जैसे तीन नेताओं के सवालों का उत्तर देना होगा । जाहिर है ये नेता जो सवाल उठा रहे हैं उनके उत्तर कम से कम राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र तो नहीं दे सकते । फिर पार्टी के शासन के दो मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में राज्य में फैली अराजकता, बढ़ते अपराधों और आर्थिक बदहाली केसवाल भी सामने हैं। इन सवालों से जूझकर उ.प्र. में नए मुख्यमंत्री कुछ नया रच पाएंगे, वहां के ताजा हालात तो इसका अवसर शायद ही उन्हें देंगे। फिर भी ताजपोशी के मौके पर एक मुख्यमंत्री को शुभकामनाएं और उ.प्र. के बेहतरी की कामना ही की जा सकती है। वैसे भी भाजपा यदि वृहत्तर हिंदू समाज या भारतीय समुदायों के नेतृत्व करने का दम भरती है तो कम से कम उ.प्र. में अपने नेतृत्व में इसकी झलक उसे देनी होगी। प्रधानमंत्री का गृहप्रांत होने के नाते वहां के ऐसे संदेश सारे देश को दिशा दे सकते हैं। गोविंदाचार्य के साथ ‘सामाजिक अभियांत्रिकी’ के दर्शन की विदाई न हो जाए, भाजपा के कार्यकर्ताओं एवं नेतृत्व को इस दिशा में जरूर सोचना चाहिए। बंगारू लक्ष्मण जैसे प्रतीकों से आगे बढ़कर भाजपा को समाज के सभी वर्गों को सत्ता में, संगठन में हिस्सेदारी देते हुए देखना होगा। यही एक बात भाजपा की अखिलभारतीयता और विराटता को स्थापित कर पाएगी ।
(26 अक्टूबर, 2000)
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