इस रथ को कौन रोकेगा ?
जिस देश पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ताओं का शासन हो, वहां हमें संस्कृति की चिंता नहीं करनी चाहिए, दरअसल ऐसा करके हम माननीय आडवानीजी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और उन बजरंगियों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, जिनके बाहुबल से भारतीय संस्कृति आज तक जीवंत और अक्षुण्य बनी हुई है। बाजारवादी व्यवस्था व पाश्चात्य प्रभावों को लेकर इतनी हाय तौबा मचाने से पूर्व हमें यह गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि क्या इसे रोका जा सकता है ? विदेशी पूंजी की जरूरत और उसके प्रभावों को नकारा जा सकता है ? जेल के देहरी पर खड़े हमारे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव, जिन्होंने ‘उदारीकरण की खिड़कियां’ खोली और अब वे (राव) वाजपेयी सरकार पर ‘दरवाजे उखाड़ देने’ का आरोप लगाते हैं तो हास्यास्पद ही लगता है। चस है कि यह रास्ता ही ऐसा था यहां से पीछे नहीं लौटा जा सकता। वाजपेयी हों या राव इस धारा को, चक्र को, कोई वापस नहीं लौटा सकता । बाजारवाद के मूल्यों को हमारी राजनीति के इस आत्मसमर्पण के बाद यह बहस बेमतलब है कि बाजार से कैसे बचा जाए। शिक्षा कैसे बचे, मूल्य कैसे बचें, लोकाचार कैसे बचें। बाजार जब भी आता है- वह अपने साथ एक पूरी जीवनशैली लेकर आता है। कोई भी देश या उसकी संस्कृति इन नई पूंजीवादी सांस्कृतिक घुसपैठ के साथ जुड़कर नए तात्पर्य और अर्थ ग्रहण करते ही हैं प्रारंभ में यह प्रक्रया केवल शहरी मध्यवर्घ और समृद्ध उच्चवर्ग तक ससीमित रहती है, धीरे-धीरे गांवों-कस्बों तक भी पसरती है। चिंता का कारण यही है। बाजारीकरण के ये चिह्न सुदूर दक्षिण के किसी कस्बें से लेकर लखनऊ में मेडिकल दुकानों में हाल में मिलनी शुरू हुई भीयर पीकर हरकतें करते युवाओं या दिल्ली में भी। एम. डब्लू, को बदहवाश तरीके से चलाते हुए लोगों को कुछ लते हुए किसी अमीरजादे में देखे जा सकते हैं। नशे, राजरंग, इफरात पैसे की दुनिया को लोकाचार रास नहीं आते, उसे सिर्फ उपभोक्ता चाहिए। वे भी जो उसकी ताल पर नाच सकें।
हमारी सांस्कृतिक चेतना और पर्व अब बाजार के निशाने पर हैं। विदेशी टी वी चैनल हों या कंपनियां सब भारतीय त्यौहारों की उम्दा पैकेजिंग को आतुर हैं। आपका दूरदर्शन और भारतीय व्यापारी इस पैकेजिंग की ‘एबीसीडी’ भी नहीं समझते। अब तीज-त्यौहार बाजार के एक घटक हैं। आपके उत्सव में उनकी हिस्सेदारी के साथ आपकी जेब पर भी उनकी नजर है। उत्सवधर्मी भारतीय मन त्यौहारों पर खर्च करने, खरीदने की मानसिकता में रहता है-कंपनियां और उनके ‘विज्ञापन गुरु’यही चोट कर रहे हैं। अब वे 5 सितारा होटलों में महिलाओं के त्यौहार ‘तीज’ से लेकर गली-नुक्कड़ों के देवी जागरण के आयोजनों को भी प्रायोजित कर रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इन त्यौहारों पर सहभाग के दो प्रमुख कारण समझ में आते हैं-पहला और सर्वप्रमुख कारण तो यह कि वे हमारी बाजारोन्मुखता के बढ़ाते हैं, दूसरे वे हमारे पर्व उत्सवों में सक्रियता दिखाकर अपने ‘विदेशीपन’ की झिझक मिटाते हुए अपने भारतीयपन का, भारतप्रेमी होने का प्रमाण भी देते चलते हैं। तीज-त्यौहारों में यह सांस्कृतिक हस्तक्षेप सही अर्थों में विदेश पूंजी के लिए सुखद भविष्य की जमीन तैयार करता है। अब सवाल यह उठता है कि जब हमने बाजारवादी मूल्यों को दंडवत ही कर लिया है तो इसमें गलत क्या है। सच तो यह है कि यह दौर बाजार को प्रमाण कर सत्ता और साधनों की व्यवस्था में स्वयं को फिट करने का है।
अपने त्यौहारों के अलावा हमने 31 दिसंबर का तूफानी- रसायनी हंगामा, वेलेंटइन डे, रोज डे फैंडशिप डे जैसे त्यौहार भी जीवन में शामिल कर लिए हैं, जो बाजार की माया को और मजबूती देती हैं। कंपनियों वे कार्ड बनाती हों या गिफ्ट्स। इस होड़ में मालामाल हो रही हैं। नई इच्छाओं, नए त्यौहारों का सृजन इसके बीच सूखते अपनेपन के रिश्ते मदर्स-डे, फादर्स-डे को भी चलाने की कोशिशे जारी हैं, हो सकता है नए आने वाले सालों में यह भी एक प्रमुख पर्व बन जाएं। कंपनियों को क्या फर्क पड़ता है वे ‘ईद’ से लेकर ‘दीवाली’-‘वेलेंटाइन’ सबके कार्ड छापती हैं । सबके ‘गिफ्ट’ बेचती हैं। कार्डों से पनपते रिश्तों, प्रायोजित पार्टियों, जलसों में थिरकती पीढ़ी के साथ बाजार का यह संवाद हमारे संसार को किस शक्ल में बदलेगा कहना मुश्किल है। समाज के बुद्धिजीवी वर्गों एवं सत्ता के नियमों ने बाजार की इस सत्ता के आगे जिस तरह आत्मसमर्पण किया है, उसमें, कितना अमृत या कितना विष निकलेगा, इसका आकलन होना अभी शेष है। लेकिन इतना तय है सत्ता के केंद्र में बैठे लोग बाजारीकरण की ताकतों से जूझकर अपना स्वत्व बचाने की स्थिति में भी नहीं है। अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों के सबसे बड़े पैरोकार बनने वाले जब सत्ता में हैं तो ‘संस्कृति’ की बेचारगी देखने लायक है। बाजार का यह रथ बढ़ता आ रहा है-यह कुछ नहीं छोडे़गा। लोग, लोकाचार, पर्व, त्यौहार, शिक्षा, भाषा, बोली, संस्कार, खान-पान सब निशाने पर हैं। इस रथ पर चमकती चीजें हैं-दर्जनों विदेशी चैनल हैं, उपभोक्ता सामग्री हैं, डिब्बा बंद पदार्थ हैं, श्रृंगार प्रसारण हैं, नेस्ले हैं, मै डोनाल्ड है, वैलेंटाइन हे है, 31 दिसंबर की रात का मदिरामय जश्न है, करोड़ों उपभोक्ता हैं, सिर्फ नहीं है भारत के वे करोड़ों लोग जो आज भी मेहनत कर दो वक्त की रोटी नहीं जुटा नहीं जुटा पाते। आडवानी के रामरथ को समस्तीपुर में सामाजिक न्याय की ताकतों ने रोक लिया थास बाजार के इस रथ को रोकने कौन आएगा ?
(15 अक्टूबर, 2000)
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