कौन रोकेगा बाजार का ‘अश्वमेघ’


बाजार शब्द से इस समय हमारा बौद्धिक तबका इतना घिनाया हुआ है गोया कि यह शब्द कोई गंदी गाली या इस्ट इंडिया कंपनी का अनुवाद हो। बाजार के खिलाफ संस्कृति को खड़ा करने का औचित्य समझ से परे है। बाजार पहले आया या संस्कृति, कौन बड़ा है कौन छोटा, ये बातें शायद वैसे ही हैं- जैसे पहले मुर्गी या पहले अंडा । बाजार के खिलाफ आंदोलित लोग ठीक वैसे ही हैं, जैसे बहते पानी पर लाठी मारकर पानी को अलग-अलग करने की कोशिश करने वाले।

जाहिर तौर पर चीजें ऐसे अलग-अलग नहीं की जा सकतीं। ‘बाजार’ कोई आज अचानक पैदा हुई ताकत नहीं है। वह पहले भी थी, आज भी है। उसके बदलते रूप, नए जमाने के हिसाब से रणनीतियां बनाने को आप कोस सकते हैं, किंतु इसे रोका नहीं जा सकता है। संस्कृति भी इसी की सवारी करती रही है। प्रतीकों का इस्तेमाल कर बाजार अपनी सत्ता का विस्तार करता आया है-आप इसे रोक नहीं सकते।

जिस जमाने में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ऐसा हल्लाबोल नहीं था तो भी कानपुर के एक व्यापारी ‘गदा छाप सुरती’ बेचा करते थे। यह गदा हमारे हनुमानजी का अस्त्र है और एक सुरती विक्रेता-ताम्बूल बिक्री के लिए उसका उपयोग करते है। मानने को इस ‘प्रतीक’ को आप संस्कृति पर हमला मान करते हैं। ऐसे ही जब एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने एक जींस निकाली और पैरों के पास हनुमान जी के चित्र का उपयोग किया तो हमारे अनिवासी भारतीयों ने शोर मचाया-कंपनी को माफी मांगनी पड़ी। ऐसे में ‘बाजार’ अचानक उपजी हुई चीज है। वह लगातार मानव जीवन की शुरुआत से ही विकास कर एक संस्थागत रूप धारण कर चुका है।

यही देशी बाजार के ‘बहादुर’ कभी गदा, तीर कमान, जय गणेश, श्रीराम, शंकर या इन नामों से अपने उत्पाद बनाकर बेचते थे तो इतना शोर नहीं होता था। आज मल्टीनेशनल कंपनियां आपके त्यौहारों दुर्गा पूजा, गणेश पूजा, रास डांडिया, होली, दीपावली मिलन, करवा चौथ जैसे आयोजन प्रायोजित कर रही हैं तो हाय तौबा मची है। यह बाजार पर बाजार की जीत है, बाजार की बाजार से लड़ाई है। संस्कृति इसमें कहां कैसे पिस रही है समझ नहीं आता। रामलीलाओं पर झूलने वाले समाज के लिए रामानंद सागर जब नए फार्म में दूरदर्शन पर रामायण लेकर आए तब भी बाजारवाद के विरोधी नहीं चीखे, जबकि इस कार्यक्रम की प्रायोजक कोलगेट कंपनी थी, जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है। अब जब बाजार त्यौहारों में रंग भर रहा है, नई इच्छाओं का सृजन कर रहा है-शायद वे अवैध भी हों, तो वे चीख रहे हैं। मोहनिद्रा से जागे लोग शायद देर कर चुके हैं। चीजें आगे जा चुकी हैं, बाजार अब नए रूप में नए रथ पर सवार है, जिसके रथ के ‘अश्वमेघ’ को रोकने का साहस हम सबमें नहीं है।

जाहिर है कि पानी पर लाठी मारने के बजाए बाजार की इस धारा की दिशा मोड़ने एवं अपने हित में इसके इस्तेमाल की बात चलनी चाहिए । स्थानीय बाजार की नाकामी, उसकी घटिया प्रस्तुति एवं उत्पादों का मुकाबला करने कोई नहीं आएगा, यह सोचना बेमानी है। सारा कुछ संरक्षणवादी छाते के नीचे जब तक चलता रहा-सबने अपनी धमाल मचाली। छाते में छेद हो चुका है, वह रिसने लगा है । अब नई धाराएं रोकी नहीं जा सकतीं।

बाजार क्या है-इसे समझा जाना शेष है, लेकिन इतना तय है कि यह सारी बुराइयों की जड़ नहीं है। उसके नियोजित एवं सही इस्तेमाल से प्रगति के मार्ग खुलते हैं और हर एक की काबिलियत को उसका सही मूल्य मिलता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश के बाद यह सवाल गहराया है कि हमारे परंपरागत उद्योग धंधों एवं कौशल का क्या होगा ? हालांकि इनकी चिंता संरक्षणवादी दौर में भी नहीं की गई और बड़े उद्योग सरकारी संरक्षण में ‘अपनी’ चलाते रहे । आज वे बिफर रहे हैं। स्वदेशी का संकल्पना तो आजादी के बाद ही धराशाही हो गई थी-संरक्षण में पले-बढ़े भारतीय उद्योंगो में भी कुछेक परिवारों को छोड़कर सबके सब इसी ‘लूटतंत्र’ में शामिल थे। तब किसी संस्कृति के पहरूए को इनकी चिंता नहीं हुई । सरकारी लूटतंत्र से लेकर बाजार के लूटतंत्र में पिसता-दबता आम आदमी सिर्फ कराह सकता था। उदारीकरण के ताजा दौर ने उसे विकल्प मौजूद कराए हैं। तकनीक, गुणवत्ता और ‘बिक्री के बाद सेवा’ जैसे सिद्धांत सामने आए हैं। ‘ग्राहक देवता है’ जैसे सिद्धांत अपने सही अर्थ ग्रहण करते नजर आए। सामाजिक दायित्वों के प्रति भी पूंजी की चैतन्यता बढ़ी। इसके बावजूद जो कमी है वह हमारे नीति नियंताओं की ओर से है। वे अनुचित लाभों के लिए गलत समझौते करते हैं और फिर विलाप करते हैं। एनरॉन के मामले को बाजार को सबसे बड़ा ‘प्रेत’ बनाकर पेश किया जा रहा है, लेकिन क्या इस मामले में अकेले ‘एनरॉन कंपनी’ दोषी है ? पर्दें के पीछ हमारे नेताओं से हुए ‘समझौते’ तथा ‘डील’ की इस संकट में कोई भूमिका नहीं है ? संकट या चुनौती दरअसल बाजार की नहीं नैतिकता और भ्रष्टाचार की है। अपने पाप छिपाने हम संस्कृति की छतरी तान लेते हैं और लाभ उठाने के लिए हम बाजार की पालकी में सवार हो लेते हैं। भारतीय मानस का सही ‘द्वैध’ शायद संकट का सबसे बड़ा कारण है। माइकल जैक्सन का इस्तकबाल करते हुए भी ‘वेलेंटाइन-डे’ का विरोध कोई भारतीय राजनेता ही कर सकता है। दुर्भाग्य है यह सारा कुछ संस्कृति के नाम पर हो रहा है। पापी बाजार नहीं है वे लोग हैं जिनके लिए हर चीज ‘लाभ’ उठाने का विषय है। एकजुट लोग अन्याय के खिलाफ इकट्ठा प्रतिरोध जता सकते है, इसलिए उन्हें तोड़ने पर जो है। बाजार इन कामों के लिए इस्तेमाल हो रहा है। गलत लोगों के हाथ में कोई भी शक्ति हो, वे उसका गलत इस्तेमाल ही करेंगे । जो बाजार जापान, अमरीका, चीन के लिए वरदान बन सकता है, वही अगर हमारे लिए ‘अभिशाप’ दिखता है तो कमी हममें है, बाजार में नहीं ।

हम हमारी संस्कृति की चिंता तो बहुत करते हैं, पर उस पर रत्ती भर चलना हमें स्वीकार्य नहीं है। चीजों को जानने एवं मानने में फर्क है। दुर्भाग्य से हम जानते सब हैं-मानते कुछ नहीं। हमें पता है क्या त्याज्य है, क्या ग्रहणीय है, क्या उपयुक्त है, क्या अनुपयुक्त है, लेकिन यह सब जानकर भी हम मन चाहा आचरण करते हैं। सामान्य स्थिति में सारे गलत काम करते हुए भी अपने साथ अन्याय होने पर ‘विलाप’ करने लगते हैं। बाजार एवं संस्कृति के नाम पर चल रहा सारा विमर्श दरअसल जीवन में पैदा हुए दोगलेपन का संघर्ष है। बाजार की चकाचौंध को देख लार टपकाते हुए उस दौड़ और रागरंग का हिस्सा बनने की अवैध आकांक्षाएं पाले हुए भी हम उसके कोसते रहते हैं, गरियाते रहते हैं।

ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हमारे नीति-नियंताओं से लेकर आमजन सब बाजार को कोसने के बजाए उसकी विशेषताओं, उसके द्वारा उपलब्ध कराए गए अवसरों के माध्यम से एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जो लोगों की प्रगति देखकर सिर्फ जलता-कुढ़ता न हो, बल्कि स्वयं प्रगति एवं विकास के नए क्षितिजों को स्पर्श करता दिखे। संस्कृति हम-आप के लोकाचारों एवं परंपराओं से बनती है। अच्छी कार्य संस्कृति, अच्छी पुष्ठभूमि पर ही खड़ी होती है। कबीर भी एक ‘बाजार’ में ही ‘लुकाठी’ लेकर खड़े थे, वे आज फिर लोगों का आह्वान कर रहे हैं। लेकिन कबीर के साथ वही जा सकते हैं, जो नवाचारों में भरोसा रखते हों, समय की चुनौती को स्वीकारने का साहस रखते हैं। कबीर के साथ जाने के लिए अपना ‘घर’ फूंकना होगा, क्योंकि यह घर-रूढ़ियों, संरक्षणों बेइमानियों, अकुशलता की ईंटों से बना है। जाहिर है ताजा दौर में बाजार ऐसे हर आदमी को सिर बिठाने तैयार है, जो प्रतिबद्धता, रचना और कौशल के साथ नए सृजन को तैयार है।वही परंपरा से चली आ रही हमारी संस्कृति को भी गौरव दिलाएंगे। नारायण मूर्ति, अमर्त्य सेन, ए. एन. मित्तल, डॉ. दीपक चोपड़ा, अरुंधती राय, सलमान रश्दी, जयंत विष्णु नारलीकर, लतामंगेशकर, विक्रम सेठ, शिवकुमार शर्मा, महर्षि महेश योगी, विजय अमृत राज, अजीम प्रेमजी, विश्वनाथन आनंद, सचिन तेंदुलकर, शेखर कपूर, अमिताभ बच्चन, सुभाष चंद्रा, धीरूभाई अमबानी, ऐश्वर्या राय, एम. एफ. हुसैन, मंजीत बावा, निर्मल वर्मा, आर.के. लक्ष्मण, डॉ. अब्दुल कलाम जैसे तमाम गिनाए जा सकते हैं, जो अपनी सुगंध को पूरी दुनिया में फैला रहे हैं। इनके सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक परिवेश इनके लिए कभी बाधा नहीं बने। अपनी जमीन पर खड़े रहकर ये अपनी जरूरत और अहमियत को साबित कर चुके हैं। यह खुशबू और तेज हो सकती है, बशर्ते हम अपने ‘विलापवादी’ चरित्र से आगे बढ़कर नई एवं ताजी सोच के साथ आगे आएं।

(4मार्च, 2001)
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