अंधेरे में बुद्ध !


विश्व मानवता को अपने जीवन, कर्म एवं संदेशों से रास्ता दिखाने वाले बुद्ध का मुकाबला हैवानियत की प्रवक्ता ताकतों से है। जाहिर है धरती पर मचे इस धमाल को देखकर ‘बुद्ध’ हंस रहे होंगे । जहालत का ऐसा नजारा किसी भी समझदार आदमी के लिए वस्तुतः हास्य का ही सृजन करता है। सच, वे दया के भाव के पात्र हैं जो ‘बुतों’ से लड़े रहे हैं। बुद्ध ने सच्चाई का, रोशनी का और तर्क का एक रास्ता दिखाया था-उनके बुतों से जूझते लोग इनमें किसी रास्ते के हमसफर नहीं हैं।

बुद्ध के बुतों को मिसमार करने वालों पर दुनिया खफा है। ध्वंस कर रहे हाथों को वह एक स्वर से लताड़ लगा रही है। लेकिन बुद्ध शायद इस सब पर ‘मौन’ रहते और मंद-मंद मुस्कराते। ‘बुद्धत्व’ की यही स्थाई भाव है। वह बुतों, ईंटों और पत्थरों से नहीं बनता । वह एक सतत चली आ रही विचारणा, तर्क, स्मृतियों और उसके संवाद से पैदा हुआ ‘बोध’ है- जाहिर है बुत तोड़कर‘ धर्म’ की स्थापना कर रहे लोग-उस यात्रा को नहीं समझ सकते । शायद इन्हीं आगतों की कल्पना कर बुद्ध ने अपनी आलोचना का शिकार बुतपरस्ती को बनाया था। वे खुद मूर्तिपूजा के खिलाफ थे। बाद में उनके शिष्यों ने उनकी मूर्तियों इतनी बना दीं कि वे एक समय में सर्वाधिक मूर्तियों में बसने वाले महापुरुष बन गए।

बुद्ध इसलिए चुप रहते, वे तालिबान के खिलाफ भी चुप रहते, दया दिखाते और उन्हें क्षमा कर देते । कहीं किसी कोने में भी उनके मन में प्रतिहिंसा का भाव नहीं आता। यही बुद्धत्व की यात्रा है-यही उनका प्रस्थान बिंदु है।

वे राजपुरुष थे।महाराज शुद्धोदन के पुत्र सिद्धार्थ । बचपन ऐसे ही करूणा-प्रेम से रसपगा था उनका व्यक्तित्व, घर से निकले तो लोगों के दर्द का, उनके संघर्ष का, मृत्यु का उनसे सामना हुआ द्रवित हो गए-घर छोड़ दिया। अपने सुखों की नदी छोड़कर वे विश्व को ‘सुख सागर’ का दर्शन देने और उसकी मुक्ति के लिए निकल पड़े । ऐसा आदमी मूर्तियां टूटने से नहीं टूटता । वह बुतों में भी नहीं बसता । वह मन में बसता है, संवेदनाओं में बसता है, दर्द में बसता है, मृत्यु में बसता है और जीवन में बसता है। ऐसे व्यक्ति को आप मार नहीं सकते। ऐसे व्यक्ति से आप जीत भी नहीं सकते। क्योंकि जीता उसे जा सकता है, जो लड़ता हो। बुद्ध के शब्दकोष में किसी से संघर्ष नहीं है, युद्ध नहीं है। वे ‘मन’ को, ‘हृदय’ को जीतने का काम करते हैं। खेत-खलिहान, राज-पाट, मंदिर-मस्जिद, मूर्ति-मजारों से कहीं बड़ी और अलग उनकी उपस्थिति है। विचारों में भी, संवेदनाओं में भी । वे कलिंग युद्ध के ‘बर्बर’ अशोक को ‘महान अशोक’ के रूप में रुपांतरित कर देने वाली प्रेरणा हैं। इसलिए शायद वे तालिबान को भी माफ कर देते।

दया और करुणा को भारतीय संदर्भ में उन्होंने पहली बार चर्चा एवं आचरण के केंद्र में लाने का काम किया। ठीक ऐसा ही काम पश्चिमी संदर्भ में ईसा मसीह ने किया था । दया-करुणा-से वे ये ही दोनों महापुरुषों के मंत्र थे। ईसा ने भी ऐसी बर्बरताओं पर अपने दुश्मनों के लिए भी प्रार्थना करने का मार्ग बताया था। वे कहते थे- ‘हे प्रभु ! इन्हें माफ करना, क्योंकि ये नहीं जानते किये क्या कर रहे हैं।’ ईसा मसीह की यह उक्ति आज तालिबान की कार्रवाई के संदर्भ में काफी प्रासंगिक है।

तालिबान के कृत्य पर विश्वव्यापी निंदा का क्रम यह बताता है कि धर्म की आड़ में चल रहे षड़यंत्रों एवं आचरणों पर दुनिया की नजर है। लोकतांत्रिक आकांक्षाएं अब रुढियों से ऊपर उठकर स्वस्थ विचार करने लगी हैं। स्वयं मुस्लिम देशों से भी तालिबान को अपने कृत्य के लिए समर्थन नहीं मिला है। जाहिर है समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में उग आए इस्लामी आतंकवाद के खतरों पर दुनिया का ध्यान गया है। तबाही, नशे और कत्लेआम के सौदागर दुनिया के एक महान धर्म के नाम पर सारा कुछ कर रहे हैं-यह और भी दुःख की बात है।

इन हालात को रोकने का विकल्प निश्चय ही हमले और युद्ध नहीं हैं। लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का विस्तार ही इस प्रकार के जुनूनी एवं तंगनजरी से उपजी समस्याओं का समाधान कर सकता है। दुर्भाग्य है भारत के आस-पास कई पड़ोसी देशों में सैनिक एवं धार्मिक कट्टरवादी सरकारें का बीज हैं। पाकिस्तान, बर्मा, अफगानिस्तान सभी इसी एक जैसी पीड़ा को भोग रहे हैं। शिक्षा एवं नए विचारों को अपनाने के बजाए मध्य युग के बीहड़ों में लौटने का ‘शौक’ जोर पकड़ रहा है।

इस प्रकार के प्रजातांत्रिक प्रयासों को, अभियानों को तेज करना, लोगों में वैज्ञानिक एवं तार्किक विचारों का प्रसार करना, धर्म की मूलभूत भावनाओं को प्रचारित करना ही ऐसे संकटों से निजात दिला सकता है। अफगानिस्तान का संकट दरअसल तर्क एवं विचारों के अंत से उपजी परिस्थितियों का संकट है। जहां आंखों पर पट्टी बांधकर लोग धर्म और मजहब की मनमानी व्याख्याएं कर रहे हैं । बुद्ध ने तर्क एवं विचार पर जो दिया था, उन्होंने कहा कि ‘किसी भी बात पर आंख मूंदकर भरोसा मत करो-तर्क तरो- फिर भरोसा करो।’ लेकिन जनतांत्रिक सरकारों के पतन से ताजा समय में विचार एवं सवाद की स्थितियां न्यूनतम हो रही हैं। बुद्ध के विचारों को जानने वाले जानते हैं कि उन सहज स्थितियों पर अंधेरा बढ़ रहा है, घटाटोप बढ़ रहा है। बुद्ध अंधेरे में हैं, विचार की शक्ति, संवाद के अवसरों पर काली छायाएं हैं। यह उजाला वापस लाने की जिम्मेदारी हम सभी की है, उन सबकी जो विचार एवं संवाद में भरोसा रखते हैं और चाहते हैं कि समाज में करूणा, ममता दया के भाव अप्रासंगिक न हों । धर्म की बुनियाद पर खड़े होकर जो पर दुःख कातर होकर विचार करने की स्थिति में हों। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सारा विश्व एव परिवार है यह भाव भारत की प्रेरणा है- यह संपूर्ण विश्व का स्वीकार्य मंत्र बने । परहित का भाव हर मन में व्यापे । तभी तालिबानी, सांप्रदायिक, संकीर्ण एवं तंग नजर ताकतों का फैलाया अंधेरों को चारकर आगे आ रहे हैं, सारी दुनिया को करुणा, प्रेम एवं दया के उजाले का उत्तराधिकार देने के लिए। मूर्तियों का ध्वंस दुख का नहीं चुनौती एवं चेतावनी का समय है। हम आज भी सांप्रदायिक ताकतों, कठमुल्लों के खिलाफ खड़े न हुए तो कल बहुत देर हो जाएगी । ‘बुद्ध’ को अंधेरे से बाहर लाना है तो इन ताकतों के खिलाफ संकल्प का ‘तेज’ दिखाना होगा । ऐसी शुरुआत यदि भारत भूमि से हो सकी तो यही बात विश्व मानवता के लिए भी शुभ होगी।

(11 मार्च, 2001)
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