राजनीतिक वियाबान से वापसी की तड़प
विद्याचरण शुक्ल के लिए यह इतना आसान नहीं हैं कि वे चुप बैठ जाएं और जो घट रहा है उसमें दर्शक की भूमिका अख्तियार कर लें। वे मंच पर रहने के अभ्यासी हैं इसलिए नेपथ्य में रहने की कला उन्हें नहीं आती। ताजा राजनीतिक दौर में उनकी उपस्थिति एक ऐसे राजनेता कीतरह है किसी भी तरह राजनीतिक बियाबान से अपनी वापसी चाहता है।
राजनीति में श्री शुक्ल आज स्थिति में हैं कोई अन्य राजनेता उस हालात को शायद जज्ब कर वक्त का इंतजार करता, लेकिन उनकी तासीर अलग है। ‘दिल्ली’ की बेवफाई और प्रदेश के सामाजिक समीकरणों की प्रतिकूलता के बावजूद अगर वे निकल पड़े हैं तो यह बात उन्हें भीड़ से अलग जरूर करती है। वे जोगी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, उसकी समझदारी पर सवाल उठा रहे हैं । इतना सब वे यह जानकर भीकर रहे हैं। कि कांग्रेस में ‘आलाकमान’ नाम की एक चीज होती है जिसकी ‘गुड़बुक’ में आज उनका नाम नहीं है। उनके हमलों का अर्थ इतना भर नहीं है कि वे अजीत जोगी से दुखी हैं। उसका मतलब यह अहसास कराना भी है कि कांग्रेस के मंच पर कम से कम छत्तीसगढ़ में उनकी अपेक्षा नहीं की जा सकती। हीरासिंह मरकाम जैसे नए दोस्तों की सोहबत इसी अहमियत को जताने और बताने का दांव है।
1 नवंबर 2000 को जैसे भी अजीत जोगी प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए हों, विद्याचरण शुक्ल इस प्रसंग में खुद को छला गया महसूस करते हैं। यह दर्द उनकी इन यात्राओं की भावभूमि बनाता है। उनकी भाषा में तल्खी लाता है और सरकार को कठघरे में खड़ा करने का साहस भी देता है। मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी उनकी इस चुनौती को महसूस करते हैं। वे सत्ता की राजनीति के न सिर्फ शिखरों को छूते रहे वरन अपने राजनीतिक विरोधियों को अपे दांव से चित भी करते रहे । राज्य निर्माण के कुछ समय पूर्व से ही कांग्रेस की राजनीति में उनका जीस तरह स्खलन हुआ वह समय आज तक जारी है। देग्विजय सिंह से लेकर अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया को वे अपने कद और व्यक्तित्व के नाते कभी नहीं सुहाए। दिग्विजय सिंह पर चुनाव के वक्त भरोसा किया तो उसके बदले धोखा मिला । लोकसभा की टिकट भी बड़े भैया श्यामाचरण शुक्ल के हिस्से चली गयी। तबसे लेकर आज तक बियावान से निकलने की उनकी छटपटाहट बढ़ती ही जा रही है। कुछ छले जाने और ठगे जाने के भाव भी उस पीड़ा को बढ़ा देते हैं। वे सत्ता के समीकरणों को अपने पक्ष में बना लेने के अभ्यासी थे किंतु ताजा हालात में चीजें उनके अनुकूल नहीं दिखातीं। वे भरोसा लेकर शायद लोगों का मन टटोलने निकले है। उनकी यात्राएं इन्हीं संभावनाओं से कोई नया आविष्कार गढ़ने की तैयारी में हैं। पर वे मुंह नहीं खोल रहे । जोगी सरकार की आलोचना से आगे नई पार्टी बनाने या बगावत के सवाल वे टाल जाते हैं। पर इतना तय मालिए वीसी चीजों की थाह लगा रहे हैं। वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल भले न कर पाएं पर कुछ लोगों के प्रतिकूल करने की तो ताकत जगा सकतेहैं। प्रदेश के सामाजिक समीकरमों तथा ‘दिल्ली’ की प्रतिकूलता के बावजूद उनकी यह यात्राएं वास्तव में साहसिक ही मानी जानी चाहिए।
(25 अगस्त, 2001)
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