हैलो, आपको क्यों नहीं दिखता वाड्रफनगर ?


भारतीय राजनेताओं की यह खूबी है कि वे किसी भी गंभीर सवाल को इतना हल्का बना देते हैं कि समस्या के समाधान या उस पर चिंतन के मार्ग ही बंद हो जाते हैं। आप देखें तो वाड्रफनगर में हुई मानवीय त्रासदी, जिसके हिस्से अब तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत दर्ज की जा चुकी है-राजनेताओं के लिए सिर्फ छिछोरी बयानबाजी का अखाडा बन जाती है।

वाड्रफनगर में जो हुआ वह सही में ऐसा कुछ नहीं हैं जिस पर हाय-हाय कर मातम मनाया जाए क्योंकि यह छत्तीसगढ़ है, जहां सालों से लोग चिकित्सा के अभाव में मरते आए हैं । इस समय मौसम में होने वाली मौतों, पलायन या अकाल की चुनौतियां हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं। चीजें इतनी ‘रूटीन’ हैं कि न मौत रूलाती है, न पलायन दुखी करता है, न ही अकाल से किसी का कलेजा फटता है। ये बातें तब भी थीं जब हम एक बड़े, प्रदेश के अंग थे-यह गरीब परिवारों के दुखों को समझने वाले को समझने वाले को अपना मुखिया बना चुके हैं। वाड्रफनगर की घटनाएं बताती हैं कि अभी कुछ भी नहीं बदला है। राजनेताओं के लिए इन मौतों का मतलब सिर्फ इतना है कि लाशें कितनी हैं। प्रदेश के सत्तारूढ़ दल के लोग आपसे 41 लोगों की मौत की जिक्र करेंगे। भाजपा की सूची में 111 लाशें दर्ज नजर आएंगी। यह ऐसी बहस है जो गलीज भी है और संवेदनहीन भी ।

हम लाशें गिन रहे, समाधान के उपाय नहीं कर रहे । दिल्ली से केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री आ जाते हैं, हमारे प्रदेश के मुखिया वाड्रफनगर नहीं पहुंचा पाते। मानवाधिकार आयोग इन घटनाओं पर चिंचित है, राजनेता लाशों की आंकड़ेबाजी में व्यस्त हैं। अब अगर आपसे कोई पूछे कि क्या इसीलिए छत्तीसगढ़ बनाया था तो आपको बुरा नहीं मानना चाहिए ।

यह बात भी स्वीकारी जानी चाहिए कि किसी नेता के प्रभावित इलाके में जाने न जाने को भी मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। जैसे कि कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल ने बिलासपुर में पत्रकारों से पूछा ‘जोगी वाड्रफनगर क्यों नहीं जाते ?’ लेकिन प्रदेश की राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोगों से यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि वे अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ चीजों को देखें तथा कम से कम अपने व्यवहार से ऐसा तो प्रदर्शित करें कि वे संबंधित विषय पर खासे गंभीर हैं। मुखिया की संवेदना का, उसकी चिंताओं का पूरा प्रशासन पर असर दिखता है। जाहिर है वाड्रफनगर जैसे इलाके हमारी प्राथमिकताओं का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। क्योंकि ये किसी राजनेता के लिए, जनसंगठन, सामाजिक संगठन के लिए कोई खास ‘स्पेस’ नहीं बनाते । मीडिया की भी प्राथमिकताएं वाड्रफनगर की त्रासदी को देखने की अलग सी हैं। आप कल्पना करें वाड्रफनगर का यह क्षेत्र मुंबई, दिल्ली, भोपाल,लघनऊ के आसपास होता तो क्या हम इतने ही लापरवाह बने जुबानी जमा खर्च से काम चलाते रह सकते थे । त्रासदी हर जगह होती है। गुजरात दो वर्ष में3 वर्ष बड़ी त्रासदी का शिकार हुआ है। प्लेग, तूफान, भूकंप सब उसके हिस्से लिखे जा चुके हैं। लेकिन वेबार-बार त्रादसी से उपजीचुनौतियों को धता बताकर उबर आते हैं। एक त्रासदी के खिलाफ लाखो-करोड़ो हाथ मदद के लिए बढ़ते हैं। यह वातावरण बाहर के लोग नहीं बनाते । उसके अपने लोग, उनकी अपनी राजनीतिक पीढ़ी, उनके व्यापारी, समाजसेवी सब हाथ लगाते हैं। राख बने शहर फिर से धड़कने लगते हैं।

यही जिजीविषा उन्हें दुनिया के हर कोने में सफल बनाती है। छत्तीसगढ़ के हिस्से बहुत बड़े दुख नहीं हैं। भगवान करे आएं भी नहीं । लेकिन यहां ‘भागीरथ’ जरूर कम है जो विकास की, मदद की, सेवेदना की पुण्यसलिला बहाकर इस राज्य को तेजी से निजात राज्य का दर्जा दिला सकें । मप्र के साथ रहते हम यह कहकर तमाम संकटों से निजात पा लेते थे कि मध्य भारत के लोग हमारी उपेक्षा करते हैं। आज हम तमाम संकटों से घिरे हैं लेकिन झूठे तसल्ली देने लायक जवाब भी हमारे पास नहा है। वाड्रफनगर की त्रासदी ने सही अर्थों में हमारे राजनीतिक दलों, जनसंगठनों, समाज सेवी संगठनों, सामाजिक समूहों की संवेदना और समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए हैं। लेकिन हम सिर्फ उंगलियां दिखा रहे हैं । पर सोचिए एक उंगली हम किसी की ओर दिखाते हैं तो कई उंगलियां हमारी ओर भी उठाई जा रही हैं। हमारी, आपकी, सबकी ओर ।

(2 सितंबर, 2001)
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