संस्कृति के क्षेत्र में बाजार की भाषा मत बोलिए


भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि वे मन में आई कोई बात कहने से नहीं चूकते, यहां तक कि वे समय, अवसर और प्रसंग की भी चिंता नहीं करते । इसी सिलसिले में एक बहुत महत्वपूर्ण राय हमारे सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरूण जेटली ने व्यक्त् की है। दिल्ली में आयोजित 31 वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के मौके पर उन्होंने कुछ पत्रकारों से बातचीत में कहा कि ‘कला फिल्मों से समय और धन की बर्बादी होती है, इसलिए कला एवं व्यावसायिक फिल्मों में अंतर को समाप्त कर देना चाहिए । ‘यह बात मंत्री महोदय ने ऐसे मौके पर कही जब राजधानी में दुनिया भर के फिल्मकार, कलाकार और फिल्म समीक्षक मौजूद थे। जाहिर है ‘संघ दीक्षित’ मंत्री महोदय के लिए ये बातें मायने नहीं रखतीं । छात्रनेता, फिर सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील से भाजपा प्रवक्ता बनकर नाम कमाने वाले अरुण जेटली भाजपा में पढ़े-लिखे और अपेक्षाकृत सौम्य राजनेता माने जाते हैं, किंतु उनकी यह टिप्पणी घोर सांस्कृतिक अज्ञानता और प्रदर्शन कलाओं के प्रति उपेक्षा और बाजारवादी मानसिकता का ही परिचायक है । ऐसे में सवाल यह उठता है कि संस्कृति कर्म के मर्म से अनभिज्ञ सरकारें और उनके मंत्री ऐसी अनर्थकारी मानसिकता पालकर कैसे इन क्षेत्रों के लिए प्रोत्साहक की भूमिका निभा पाएंगे ? जेटली ने यह बात जिस भी ‘भाव’ में कहीं हो, यह सरकारी स्तर पर फैली संस्कृति, रुपंकर कलाओं के प्रति उदासीनता का ही परिचायक है । कैसे हमारी सत्ता के पहरुए बाजार की मार से बेजार होकर बाजारवादी तंत्र के पैरोकार बन गए हैं-यह इसी का उदाहरण है ।

जेटली की राय बताती है कि हम ऐसे मसय में प्रवेश कर गए हैं, जहां कलाएं और संस्कृति बेचे व खरीदे जाने की वस्तु बनकर बाजार की तलाश में ही अपनी अर्थवक्ता प्राप्त करती हैं । शायद इसी के चलते जेटली ने आगे कहा ‘फिल्म की भाषा सिर्फ दर्शकों की पसंद होनी चाहिए । फिल्में मनोरंजन करें, दर्शक उसे सफल बनाएं व निर्माता-वितरक-प्रदर्शक सभी खुश रहें तो सरकार भी खुश रहेगी । वह फिल्म ही क्या, जिसे दर्शक नहीं मिले व धन भी नहीं ।’ ध्यान दीजिएगा यह भाषा किसी सांस्कृतिक वातावरण व कर्म को प्रोत्साहित करने वाली सरकार के मंत्री के भाषा है या व्यापारी की भाषा । फिल्मोत्सव के मौके पर की गई मंत्री महोदय की यह यह टिप्पणी बाजारवाद के पसरते पांवों का ही संकेतक नहीं है, वह हमारी सरकार में बैठे लोगों की सांस्कृति शून्यता तथा कलाधर्मिता के तिरस्कार का परिचायक भी है । मंत्री बनकर सर्वज्ञ बन जाने और किसी भी विषय पर अपनी अधिकृत टिप्पणी करने का हमारे राजनेताओं को खासा शौक रहा है । लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि दुनिया भर में सिनेमा को लेकर कई स्तरों पर काम चल रहा है । उनमें मनोरंजन, शिक्षा, हॉरर फिल्मों से लेकर ब्लू फिल्मों तक का एक तंत्र और अपनी अर्थव्यवस्थाएं हैं ।

कला फिल्में, क्योंकि कम दर्शक खींचकर कम पैसे लाती हैं । इसलिए उन्हें बेमानी ठहराना विश्व सिनेमा के परिदृश्य की अधूरी समझ हैं । सही अर्थों में सिनेमा की भाषा को पढ़ने-जानने और उसकी शक्ति का अहसास कराने का काम कला फिल्में ही करती हैं । कला और व्यवसायिक सीनेमा एक ही माध्यम पर रची जाने वाली दो भिन्न प्रस्तुतियां हैं । दोनों का अपना प्रशंसक और दर्शक वर्ग है, ठीक वैसे ही जैसे गंभीर साहित्य के पाठक अलग है और फुटपाथी साहित्य के पाठक अलग । लोकप्रिय संगीत और शास्त्रीय संगीत का भी अलग-अलग दर्शक वर्ग मौजूद है । इसलिए किसी कलात्मक विधा की आलोचना से पूर्व हमें यह बात जरुर सोचनी चाहिए कि क्या अब बाजार ही हमारी प्रवृत्तियों एवं रूचियों का नियामक होगा ? हमारे समय के एक बड़े कवि को पंक्ति है- ‘जो रचेगा, वही बचेगा’ क्या हम इस सत्य को खारिज कर ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा’ का साइनबोर्ड टांग लें ? जाहिर है रचने की भाषा सृजन की भाषा है, बिकने की भाषा बाजार की भाषा है। जूते, चप्पल, चिप्स और पापड़ बेचने की भीषा है। कला के क्षेत्र में यह भाषा न सिर्फ अर्थहीन है वरन् बेमानी भी। हम अपनी तमाम प्रदर्शन एवं रूपंकर कलाओं को इसलिए जीवंत रखते हैं, क्योंकि वे हमारी पहचान हैं, हमारी जातीय स्मृति का हिस्सा हैं, वे हमें खुद से साक्षात्कार करने का अवसर देती हैं। बाजार यहीं हदें छोड़ देता है, अमुभूति का यात्र, चिरंतनता की यात्रा यहीं से शुरू हो जाती है। यहां हम चीजों से सिखते भी हैं और उनको पुनर्स्मरण भी करते हैं । भरत नाट्यम, कुचिपुड़ी, पंडवानी, नाचा, आल्हा, बिरहा, कठपुतलियां, वालणी या ऐसे तमाम लोकनृत्य एवं लोक गीत, शास्त्रीय नाट्य हमने बचाकर रखे हैं, क्योंकि ये हमारी जातीय स्मृति के हिस्से हैं। ये हमें माइकल जैक्सन और यान्नी जैसा बाजार नहीं दिलाते, जड़ों से जोड़ते हैं। इसी तरह रामलीलाओं का आयोजन हमारी इसी परंपरा को मजबूत करता है।


आखिर हम अपना क्या-क्या बाजार के हवाले करेंगे ? ठीक इसी संदर्भ से हमारा सिनेमा जुड़ता है। भारतीय महादेश के साथ अपनी यात्रा की एक सदी पूरा कर चुका सिनेमा हमारे समाज, परिवेश एवं उसके बदलावों का स्मृति लेख है। कला फिल्मों की आलोचना से पूर्व भारतीय सिनेमा में सार्थक योगदान करने वाले सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, बुद्धदेव दास गुप्त, गौतम घोष, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे कुछ फिल्मकारों का रचना कर्म देखना चाहिए । सत्य जीत राय की ‘पाथेर पंचाली’ से लेकर पीरवी (मलयालम), माया मृगया (उड़िया), अंतरम (मलयालम), पद्म नदीर मांझी (बांग्ला), दामुल, मैसी साहब, अर्द्धसत्य, पार, परिणति, मंथन, आक्रोश, मंडी, न्यू दिल्ली टाइम्स, अंकुर, निशांत (सभी हिंदी) जैसी कुछ फिल्मों देख लेनी चाहिए ।

कला फिल्मों का उपेक्षित अतीत ही भारतीय सिनेमा का शिखर है। जहां सिनेमा अपनी कलात्मक ऊंचाइयों को संस्पर्श करता दिखता है। क्या यह हमारी कमी नहीं है कि हम इन फिल्मों को देखने का संस्कार ही विकसित नहीं कर पाए, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी क्षेत्रों में पुस्तकें पढ़ने का संस्कार नहीं है। हिंदी थिएटर के बुरे हाल है जो रच और गढ़कर सत्यजीत राय बांग्ला जीवन के शिखर पुरुष हो गए। वैसी कलात्मक प्रतिभाएं हिंदी क्षेत्रों में सिनेमा, साहित्य, संस्कृति या रंगमंच पर आदर नहीं पाती तो इसका मतलब यह नहीं कि वह कला क्षेत्र ही बेमानी है या उसे बाजारू बनाया जाए । शायद कल कोई मंत्री उत्साह में आकर यह भी कह डाले कि सरकारी प्रतिष्ठानों को साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशन पर खर्च करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इनका बाजार उपलब्ध नहीं है। साहित्यिक किताबें बिकती नहीं, इन्हें छापने से क्या फायदा ? बाजार की इस भाषा में बोल और खेल रही सरकार तब क्या अपराध एवं सतही सामग्री वाली पत्रिकाएं और फुटपाथी साहित्य छापने लगेगी। सूचना प्रसारण मंत्रालय महात्मा गांधी के लेखों के सीडी जारी करने का बजाए पॉप संगीत के सीडी जारी करेगा ?जाहिर है एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का दावा करने वाली सरकारों ऐसा नहीं कर सकतीं । भारत जैसे विशाल देश के विभिन्न प्रांतों की अनेक वाली सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं ।

भारत जैसे विशाल देश के विभिन्न प्रांतों की अनेक भाषाओं में तेजी से बेहतर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। केरल का सिनेमा कथ्य, भाषा, प्रस्तुति एवं तकनीक के लिहाज से आज बेहद समृद्ध है। उनके पास दर्शक भी हैं। बंगाल में यह धारा कमजोर हुई है, समाप्त नहीं। राष्ट्रीय फिल्म समारोहों के माध्यम से पूरे देश की सिनेमाई हलचलों एवं प्रतिभा का एक सार्थक अनुभव सामने आया है। इसी प्रकार अंतराष्ट्रीय फिल्म उत्सावों में भी दुनिया के हमारी सिने कला की जगह पता चलती है। इसलिए इन आयोजनों को मात्र एक सांस्कृतिक कर्मकांड मानना गलत है। लोग आयोजनों में नहीं जाते तो उसके लिए इसके आयोजक और हमारी नौकर शाही जिम्मेदारी है। इन आयोजनों में भारतीय सिनेमा को प्रतिष्ठा दिलाने का महत्वपूर्ण काम कला फिल्मों ने ही किया है। इनमें हिंदी भाषी फिल्मों की भूमिका तो बहुत महत्व की रही है, क्योंकि वे अपनी सांस्कृतिक भावभूमि से गहरे जुड़ी हुई हैं । कला फिल्मों अपनी साहसिक प्रयोग धर्मिता एवं सिनेमा जैसे अनुशासन को नया अर्थ तथा रूप दे पाने में सफल रही हैं। मनोरंजन के लिए मुख्य धारा का सिनेमा अपना काम कर रहा है, उसे करने दीजिए । लेकिन कला फिल्मों की अपनी दुनिया है, उनके भी बनाने वाले और देखने वाले हैं। अच्छे साहित्य, अच्छे सिनेमा, अच्छी कला और अच्छे आदमी पर हमला चौतरफा है। इसके लिए बाजार और खरीदार नहीं है। स्वाभाविक है ये बाजार की चीजें नहीं हैं। इन्हें बाजार के पैमाने पर मत मापिए। बाजार के डंडे से सांस्कृतिक क्षेत्र को मत हांकिए । सिने महोत्सव हों या अन्य संस्कृति कर्म, सब हमारी कलाओ के प्रदर्शन का मंच हैं। इन्हें स्वायत्तता और सम्मान देकर ही हम एक सृजनशील समाज बना पाएंगे। सरकारें और उनके नियामक इन उत्सवों पर प्रोत्साहक की भूमिका निभा सकें तो बेहतर, अन्यथा फतवेबाजी से बाज आएं। आप फिल्मोत्सव के जलसे पर पैसा न लगाएं यह चलेगा, किंतु ऐसे आयोजनों का सवाल बहुत संवेदनशीन है, कृपया इसे इसके जानकारों और इसके प्रेमियों के लिए छोड़ दीजिए।

(19 जनवरी, 2000)
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