चौथे पाए पर विदेशी निगाहें
देश में विदेशी अखबारों के प्रवेश की चर्चाओं से वातावरण गर्म है । हालांकि, केन्द्र सरकार इस बात से कई बार इंकार कर चुकी है फिर भी पाठकों के बीच तो नहीं पर मीडिया से जुड़े लोगों के बीच यह एक बड़ी बहस बन गई है । इस बहस में बहुमत निश्चय ही इन अखबारों के प्रवेश के खिलाफ है । दूसरा वर्ग इसे बुरा नहीं मानता और देश के कई बड़े समाचार पत्र प्रकाशन समूह विदेशी अखबारों से रिश्तेदारी जोड़ने को तैयार बैठे हैं । जहां तक पाठक का सवाल है, वह इस पूरी बहस से अनुपस्थित हैं कमोबेश भारतीय प्रेस ने अभी तक इस सवाल पर पाठकों की राय जानने की कोशिश भी नहीं की है । इस सबके बीच हमारी केंद्रीय सरकार में बैठे ज्यादातर लोग अंतर्मन से विदेशी अखबारों के प्रवेश पर रजामंद हैं।
ऊपर से देखने पर तो सरकार इस प्रसंग पर दुविधाग्रस्त दिखती है, पर वास्तव में यह सच नहीं है । वह अखबार मालिकों के एक वर्ग से लेकर विरोधी दालों तथा स्वयं अपने दल में हो रहे प्रतिरोध के दबाव में है । आमतौर पर सरकार यह मान चुकी है कि उसे देर-सबेर विदेशी समाचार-पत्रों के लिए दरवाजे खोलने ही पड़ेंगे । अंतविर्रोधों एवं अनिश्चिताओं से घिरी सरकार इस ‘बैल’ को छुट्टा छोड़ देने के मूड़ में है । सच पूछें तो भ्रम का यह धुंधलका इतना गहरा है कि हम अभी तक इससे होने वाले खतरों की व्यापकता का भान नहीं कर पाए हैं, ऐसे में जब खतरे की व्यापकता और परिधि का पता ही न हो इसके खिलाफ लड़ाई निश्चय ही बहुत कमजोर हो जाती है । लेकिन जब खतरा बड़ा हो तो यह विचार होना ही चाहिए कि यह हमारी क्या और कितनी हानि कर सकता है ? फिलहाल इस सवाल पर चल रही चर्चाएं महज अकादमिक एवं सैद्धांतिक हैं । दूसरी ओर टी. वी. के लिए विदेशी चैनलों के दरवाजे खोलकर हमने अपनी मुहिस को और कमजोर बना लिया है । कहा जा रहा है कि इलेक्ट्रानिक माध्यमों का उदारीकरण हो गया है, फिर अखबारी जगत के लिए यह संकीर्णता का भाव क्यों ?
निश्चय ही जो ताकतें दूसरे देशों से समाचार पत्र निकालने को लालायित हैं वे यहां मात्र जनता के क्ल्याण और उस तक सूचना पहुंचाने की ही पवित्र मंशा लेकर आ रही है, सोचना ठीक न होगा। हो सकता है इसके पीछे बदली हुई अर्थव्यवस्था के मद्देनजर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बढ़ता दबाव हो, जो सरकार से यह आग्रह कर रही हैं कि वह भारत में विदेशी मीडिया को प्रवेश की अनुमति दे। ताकि भारत में विज्ञापनों तथा उपभोक्ता संस्कृति के जरिए उनके लिए व्यावसायिक प्रगति के मार्ग खुल सकें। एक बात यह भी हो सकती है कि हमारी सरकार को देशी सूचना तंत्रों की स्वतंत्रता रास न आ रही हो और वह बाहरी माध्यमों से उन पर अंकुश लगाना चाहती हो। हालांकि, सरकार की मंशाएं जो भी हों, पर आर्थिक क्षेत्र में निवेश के पीछे सरकार जो कारण बता रही है वह है- ताकि उद्योगों की गुणवत्ता बढ़े, प्रतियोगिता की भावना पैदा हो निवेश की मात्रा बढ़े, आदि-आदि । क्या इसी बाजारू तर्कशास्त्र के आधार पर विदेशी समाचार पत्रों को देश में प्रवेश की अनुमति दी जा सकती है। सरकार इन समाचार पत्रों को प्रवेश देकर कौन सी सूचना क्रांति लाना चाहती है, यह विचार का मुद्दा है। वैसे भी भारतीय समाचार पत्र प्रसार, गुणवत्ता, सूचनाओं की उत्कृष्टता की दृष्टि से कमतर नहीं हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा प्रेस की आजादी का जो स्तर भारत में मौजूद है, वह अपने आप विशिष्ट है। मात्र उदारीकरण के तर्क भर में विदेशी अखबारों का स्वीकार गलत होगा। सबसे पहली बात यह है कि उदारीकरण के दर्शन को पारिभाषित कर यह बताया जाना चाहिए कि आखिर उदारीकरण की सीमाएं क्या हैं ? इसमें क्या-क्या आएगा और क्या कुछ बच भी पाएगा। नीतिगत अस्पष्टता के बावजूद यह याद रखना होगा कि अखबार को अन्य उद्योगों की तरह नहीं देखा जा सकता । यह विचार भी करना होगा कि क्या बाहर से आने वाले समाचार पत्र हमारी ‘जनरुचि’ का विचार कर पाएंगे, क्या उन्हें हमारे पाठकों की ‘भूख’ का अहसास होगा या वे सिर्फ चंद अंग्रेजी दां लोगों के लिए उपयोग की सामग्री बने रह जाएंगे । एक बड़ा खतरा विदेशी माध्यमों के साधनों और तकनीक के समक्ष भारतीय मीडिया के टिक पाने का है। ज्यादा पैसा, अधुनातन तकनीक से लैस समर्थ तंत्र से लड़ाई सहज तो नहीं है। ऐसी स्थिति में देश के जनसंचार माध्यमों का स्वरूप पूर्णतः व्यापारिक हो जाने का भी खतरा है। हो सकता है समाचार पत्र का यह बाजारीकरण उसे पाठक को सूचना, जानकारी और स्वस्थ मनोरंजन देने के कल्याणपरक उद्देश्य से विलग कर दे । कमोवेश यही चरित्र आज विदेशी चेनलों से प्रसारित कार्यक्रमों का है।
विदेशी सोच की छौंक से पका उनका पकवान पाठक की मानसिक क्षुधापूर्ति तो नहीं करता, हां, उनकी रुचियां विकृत जरूर करता है। विदेशी अखबारों के भारत में प्रवेश के संदर्भ में सर्वाधिक चर्चाउसके दुष्प्रभावों को लेकर हो रही है। निश्चय ही ‘खबर’जैसे प्रभावी उत्पाद को साबुन, तेल, सिगरेट जैसे उत्पादों के नजरिए से देखा भी नहीं जाना चाहिए । क्योंकि शब्दों की अपनी अलग सत्ता होती है और उसके चलते हम पूरे समाज की मानसिक यात्रा की दिशा में विचलन ला सकते हैं। ऐसे में खबर जैसे उत्पाद का साधनानीपूर्वक उपयोग पहली शर्त है। मात्र इस दुहाई पर कि लोकतंत्र में सूचना का मुक्त प्रवाह चलना चाहिए, विदेशी मीडिया को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। फिर भी जानने की आजादी का महत्व इससे कम नहीं होता, पर यह विचार तो सर्वमान्य होना ही चाहिए कि अंततः राष्ट्र से बड़ा कोई नहीं है। राष्ट्रीय अस्मिता बचाने के लिए शब्द की क्षणिक हिंसा भी जायज मानी जा सकती सूचना के मुक्त प्रवाह की आड़ में विकसित देशों का ‘सूचना साम्राज्यवाद’ नहीं चलना चाहिए। दरअसल यहां शक्तिशालियों और साधन संपन्नों की उत्तरजीविता के चलते अपने से कमजोर प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने का विचार महत्व पा रहा है। ध्यान देने की बात है कि विश्व में अपनी प्रगतिशील एवं अग्रगामी सोच का ढिंढोरा पीटने वाले अमरीका जैसे राष्ट्र में भी ऐसे एक भी उदाहरण नहीं है कि जब उन्होंने किसी विदेशी नागरिक को पत्र पत्रिकाएं चलाने की अनुमति (स्वामित्व) दिया हो। आस्ट्रेलिया के रूपर्ट मारडाक भी अमरीका की राष्ट्रीयता ग्रहण करने के बाद ही अपना व्यापार चला पाते हैं। उदारीकरण के झंडाबरदार अमरीका को शायद याद हो कि जब वहां ब्रिटिश स्वामित्व वाली ‘रायटर’ समाचार एजेंसी ने काम आरंभ किया तो उसे जबर्दस्त अमरीकी विरोध का सामना करना पड़ा था। व्रिटेन की राजसत्ता आज भी रूपर्ट मारडाक को अखबारों का स्वामित्व देकर पछता रही है। जाहिर है ऐसे प्रसंगों पर भारत के अनुभव भी इससे बेहतर नहीं होंगे। क्योंकि ऐसे व्यावसायिक मगज के लोग आपकी परंपरा संस्कृति और सोच का बहुत विचार करेंगे, नहीं लगता। विदेशी मीडिया के प्रवेश के साथ ही मीडिया में भारतीय समाज के नैतिक, पारंपरिक मूल्यों का विचार बचेगा, सोचना मूर्खता होगी। टी. वी. के तमाम चैनल खोलकर ‘निक्की टू नाइट’ में अपने पूज्य राष्ट्रपिता को गालियां दिलाकर हम इसके उदाहरण भी पा चुके हैं । नग्नता, आतंक और अपसंस्कृति के प्रसंगों को विदेशी चैनल लोकरुचि को विकृत कर जैसी सामाजिक स्वीकार्यता दिला रहे हैं, वह खेदजनक है। इस खतरे को 1955-56 में ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने महसूस किया था। उनकी कैबिनेट ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के जरिए देश में विदेशी मीडिया के प्रवेश पर रोक लगा दी थी।
लेकिन आज राष्ट्रीय अस्मिता, उसके सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना तथा भाषा की विकृति का जैसा जाल विदेशी चेनलों के माध्यम से टी.वी. फैला रहा है उसे देखते हुए सरकार को दृढ़तापूर्वक विदेशी अखबारों के भारत में प्रवेश का सवाल रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहिए। इन सबके बीच अखबारों से जुड़ा एक वर्ग पत्रकारों की बदतर स्थिति के मद्देनजर यह विचारने लगा है कि विदेशी अखबार आएंगे तो ज्यादा पैसे और सुविधाएं मिलेंगी । ऐसे में उनका आना बुरा क्यों है ?पर क्या मात्र पैसों, सुविधाओं एवं वेतन की विसंगतियों के दूर हो जाने से ही पत्रकारिता में क्रांति हो जाएगी । हो सकता है इससे तत्काल कुछ पत्रकारों के जीवन स्तर में तब्दीली हो भी जाए। पर क्या हम अपनी आत्मा को बंधक बनाकर अपने पाठकों का सौदा नहीं कर रहे होंगे ? विश्व बाजारवाद के इस पाशविक चरित्र के सामने पाठकों का सौदा नहीं कर रहे होंगे ? विश्व बाजारवाद के इस पाश्विक चरित्र के सामने हमारी यह घुटनाटेक सोच क्या उनके हौसले नहीं बढ़ाएगी। ऐसे घटाटोप में क्या हम अपनी बुद्धि,विवेक,संस्कार और सोचच विदेशी हाथों में गिरवी रखने को तैयार हो गए हैं। समाचार पत्र जगत में चल रही यही दुविधा और द्वंद्व ही हमारे वैचारिक एवं मानसिक दरिद्रय का सूचक है। ऐसे में यह दृढ़तापूर्वक स्वीकारना होगा कि समाचार पत्र सिर्फ आर्थिक गतिविधि नहीं है। हमें तय करना होगा कि हम आर्थिक गतिविधियों पर विदेशी स्वामित्व की कंपनियों का और मानसिक गतिविधियों पर विदेशी स्वामित्व के संचार माध्यमों का वर्चस्व नहीं होने देंगे। वास्तव में यही संकल्प भारतीय लोकतंत्र एवं पत्रकारिता को प्राणवान बनाएगा।
ऊपर से देखने पर तो सरकार इस प्रसंग पर दुविधाग्रस्त दिखती है, पर वास्तव में यह सच नहीं है । वह अखबार मालिकों के एक वर्ग से लेकर विरोधी दालों तथा स्वयं अपने दल में हो रहे प्रतिरोध के दबाव में है । आमतौर पर सरकार यह मान चुकी है कि उसे देर-सबेर विदेशी समाचार-पत्रों के लिए दरवाजे खोलने ही पड़ेंगे । अंतविर्रोधों एवं अनिश्चिताओं से घिरी सरकार इस ‘बैल’ को छुट्टा छोड़ देने के मूड़ में है । सच पूछें तो भ्रम का यह धुंधलका इतना गहरा है कि हम अभी तक इससे होने वाले खतरों की व्यापकता का भान नहीं कर पाए हैं, ऐसे में जब खतरे की व्यापकता और परिधि का पता ही न हो इसके खिलाफ लड़ाई निश्चय ही बहुत कमजोर हो जाती है । लेकिन जब खतरा बड़ा हो तो यह विचार होना ही चाहिए कि यह हमारी क्या और कितनी हानि कर सकता है ? फिलहाल इस सवाल पर चल रही चर्चाएं महज अकादमिक एवं सैद्धांतिक हैं । दूसरी ओर टी. वी. के लिए विदेशी चैनलों के दरवाजे खोलकर हमने अपनी मुहिस को और कमजोर बना लिया है । कहा जा रहा है कि इलेक्ट्रानिक माध्यमों का उदारीकरण हो गया है, फिर अखबारी जगत के लिए यह संकीर्णता का भाव क्यों ?
निश्चय ही जो ताकतें दूसरे देशों से समाचार पत्र निकालने को लालायित हैं वे यहां मात्र जनता के क्ल्याण और उस तक सूचना पहुंचाने की ही पवित्र मंशा लेकर आ रही है, सोचना ठीक न होगा। हो सकता है इसके पीछे बदली हुई अर्थव्यवस्था के मद्देनजर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बढ़ता दबाव हो, जो सरकार से यह आग्रह कर रही हैं कि वह भारत में विदेशी मीडिया को प्रवेश की अनुमति दे। ताकि भारत में विज्ञापनों तथा उपभोक्ता संस्कृति के जरिए उनके लिए व्यावसायिक प्रगति के मार्ग खुल सकें। एक बात यह भी हो सकती है कि हमारी सरकार को देशी सूचना तंत्रों की स्वतंत्रता रास न आ रही हो और वह बाहरी माध्यमों से उन पर अंकुश लगाना चाहती हो। हालांकि, सरकार की मंशाएं जो भी हों, पर आर्थिक क्षेत्र में निवेश के पीछे सरकार जो कारण बता रही है वह है- ताकि उद्योगों की गुणवत्ता बढ़े, प्रतियोगिता की भावना पैदा हो निवेश की मात्रा बढ़े, आदि-आदि । क्या इसी बाजारू तर्कशास्त्र के आधार पर विदेशी समाचार पत्रों को देश में प्रवेश की अनुमति दी जा सकती है। सरकार इन समाचार पत्रों को प्रवेश देकर कौन सी सूचना क्रांति लाना चाहती है, यह विचार का मुद्दा है। वैसे भी भारतीय समाचार पत्र प्रसार, गुणवत्ता, सूचनाओं की उत्कृष्टता की दृष्टि से कमतर नहीं हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा प्रेस की आजादी का जो स्तर भारत में मौजूद है, वह अपने आप विशिष्ट है। मात्र उदारीकरण के तर्क भर में विदेशी अखबारों का स्वीकार गलत होगा। सबसे पहली बात यह है कि उदारीकरण के दर्शन को पारिभाषित कर यह बताया जाना चाहिए कि आखिर उदारीकरण की सीमाएं क्या हैं ? इसमें क्या-क्या आएगा और क्या कुछ बच भी पाएगा। नीतिगत अस्पष्टता के बावजूद यह याद रखना होगा कि अखबार को अन्य उद्योगों की तरह नहीं देखा जा सकता । यह विचार भी करना होगा कि क्या बाहर से आने वाले समाचार पत्र हमारी ‘जनरुचि’ का विचार कर पाएंगे, क्या उन्हें हमारे पाठकों की ‘भूख’ का अहसास होगा या वे सिर्फ चंद अंग्रेजी दां लोगों के लिए उपयोग की सामग्री बने रह जाएंगे । एक बड़ा खतरा विदेशी माध्यमों के साधनों और तकनीक के समक्ष भारतीय मीडिया के टिक पाने का है। ज्यादा पैसा, अधुनातन तकनीक से लैस समर्थ तंत्र से लड़ाई सहज तो नहीं है। ऐसी स्थिति में देश के जनसंचार माध्यमों का स्वरूप पूर्णतः व्यापारिक हो जाने का भी खतरा है। हो सकता है समाचार पत्र का यह बाजारीकरण उसे पाठक को सूचना, जानकारी और स्वस्थ मनोरंजन देने के कल्याणपरक उद्देश्य से विलग कर दे । कमोवेश यही चरित्र आज विदेशी चेनलों से प्रसारित कार्यक्रमों का है।
विदेशी सोच की छौंक से पका उनका पकवान पाठक की मानसिक क्षुधापूर्ति तो नहीं करता, हां, उनकी रुचियां विकृत जरूर करता है। विदेशी अखबारों के भारत में प्रवेश के संदर्भ में सर्वाधिक चर्चाउसके दुष्प्रभावों को लेकर हो रही है। निश्चय ही ‘खबर’जैसे प्रभावी उत्पाद को साबुन, तेल, सिगरेट जैसे उत्पादों के नजरिए से देखा भी नहीं जाना चाहिए । क्योंकि शब्दों की अपनी अलग सत्ता होती है और उसके चलते हम पूरे समाज की मानसिक यात्रा की दिशा में विचलन ला सकते हैं। ऐसे में खबर जैसे उत्पाद का साधनानीपूर्वक उपयोग पहली शर्त है। मात्र इस दुहाई पर कि लोकतंत्र में सूचना का मुक्त प्रवाह चलना चाहिए, विदेशी मीडिया को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। फिर भी जानने की आजादी का महत्व इससे कम नहीं होता, पर यह विचार तो सर्वमान्य होना ही चाहिए कि अंततः राष्ट्र से बड़ा कोई नहीं है। राष्ट्रीय अस्मिता बचाने के लिए शब्द की क्षणिक हिंसा भी जायज मानी जा सकती सूचना के मुक्त प्रवाह की आड़ में विकसित देशों का ‘सूचना साम्राज्यवाद’ नहीं चलना चाहिए। दरअसल यहां शक्तिशालियों और साधन संपन्नों की उत्तरजीविता के चलते अपने से कमजोर प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने का विचार महत्व पा रहा है। ध्यान देने की बात है कि विश्व में अपनी प्रगतिशील एवं अग्रगामी सोच का ढिंढोरा पीटने वाले अमरीका जैसे राष्ट्र में भी ऐसे एक भी उदाहरण नहीं है कि जब उन्होंने किसी विदेशी नागरिक को पत्र पत्रिकाएं चलाने की अनुमति (स्वामित्व) दिया हो। आस्ट्रेलिया के रूपर्ट मारडाक भी अमरीका की राष्ट्रीयता ग्रहण करने के बाद ही अपना व्यापार चला पाते हैं। उदारीकरण के झंडाबरदार अमरीका को शायद याद हो कि जब वहां ब्रिटिश स्वामित्व वाली ‘रायटर’ समाचार एजेंसी ने काम आरंभ किया तो उसे जबर्दस्त अमरीकी विरोध का सामना करना पड़ा था। व्रिटेन की राजसत्ता आज भी रूपर्ट मारडाक को अखबारों का स्वामित्व देकर पछता रही है। जाहिर है ऐसे प्रसंगों पर भारत के अनुभव भी इससे बेहतर नहीं होंगे। क्योंकि ऐसे व्यावसायिक मगज के लोग आपकी परंपरा संस्कृति और सोच का बहुत विचार करेंगे, नहीं लगता। विदेशी मीडिया के प्रवेश के साथ ही मीडिया में भारतीय समाज के नैतिक, पारंपरिक मूल्यों का विचार बचेगा, सोचना मूर्खता होगी। टी. वी. के तमाम चैनल खोलकर ‘निक्की टू नाइट’ में अपने पूज्य राष्ट्रपिता को गालियां दिलाकर हम इसके उदाहरण भी पा चुके हैं । नग्नता, आतंक और अपसंस्कृति के प्रसंगों को विदेशी चैनल लोकरुचि को विकृत कर जैसी सामाजिक स्वीकार्यता दिला रहे हैं, वह खेदजनक है। इस खतरे को 1955-56 में ही देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने महसूस किया था। उनकी कैबिनेट ने एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के जरिए देश में विदेशी मीडिया के प्रवेश पर रोक लगा दी थी।
लेकिन आज राष्ट्रीय अस्मिता, उसके सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना तथा भाषा की विकृति का जैसा जाल विदेशी चेनलों के माध्यम से टी.वी. फैला रहा है उसे देखते हुए सरकार को दृढ़तापूर्वक विदेशी अखबारों के भारत में प्रवेश का सवाल रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहिए। इन सबके बीच अखबारों से जुड़ा एक वर्ग पत्रकारों की बदतर स्थिति के मद्देनजर यह विचारने लगा है कि विदेशी अखबार आएंगे तो ज्यादा पैसे और सुविधाएं मिलेंगी । ऐसे में उनका आना बुरा क्यों है ?पर क्या मात्र पैसों, सुविधाओं एवं वेतन की विसंगतियों के दूर हो जाने से ही पत्रकारिता में क्रांति हो जाएगी । हो सकता है इससे तत्काल कुछ पत्रकारों के जीवन स्तर में तब्दीली हो भी जाए। पर क्या हम अपनी आत्मा को बंधक बनाकर अपने पाठकों का सौदा नहीं कर रहे होंगे ? विश्व बाजारवाद के इस पाशविक चरित्र के सामने पाठकों का सौदा नहीं कर रहे होंगे ? विश्व बाजारवाद के इस पाश्विक चरित्र के सामने हमारी यह घुटनाटेक सोच क्या उनके हौसले नहीं बढ़ाएगी। ऐसे घटाटोप में क्या हम अपनी बुद्धि,विवेक,संस्कार और सोचच विदेशी हाथों में गिरवी रखने को तैयार हो गए हैं। समाचार पत्र जगत में चल रही यही दुविधा और द्वंद्व ही हमारे वैचारिक एवं मानसिक दरिद्रय का सूचक है। ऐसे में यह दृढ़तापूर्वक स्वीकारना होगा कि समाचार पत्र सिर्फ आर्थिक गतिविधि नहीं है। हमें तय करना होगा कि हम आर्थिक गतिविधियों पर विदेशी स्वामित्व की कंपनियों का और मानसिक गतिविधियों पर विदेशी स्वामित्व के संचार माध्यमों का वर्चस्व नहीं होने देंगे। वास्तव में यही संकल्प भारतीय लोकतंत्र एवं पत्रकारिता को प्राणवान बनाएगा।
(17 मार्च,2000)
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