आर्थिक बदहाली सबसे बड़ी चुनौती
नब्बे के दशक के आखिरी साल उत्तर प्रदेश को आर्थिक बदहाली की अंधेरी सुरंग में ले जाने वाले साबित हुए। 16 करोड़ लोगों से ज्यादा आबादी वाला यह राज्य आज अपने सबसे बुरे दिन देख रहा है। आर्थिक बदहाली और अराजकता के मोर्ते पर वह अब तेजी से बिहार का अनुगामी बन रहा है। जाहिर है, चुनौतियां कठिन हैं, पर उ.प्र. के भाग्य में उजास की कोई किरण टूर-दूर तक दिखाई नहीं देती।
लगभग दिवालिया हो चुके इस राज्य के पास अक्षम, नाकारा और बुजुर्ग नेताओं की फौज तो जरूर है, किंतु उसके पास ऐसा कोई दूरदर्शी, संकल्पी नेतृत्व नहीं है जो नए जमाने की हवा के मुताबिक रणनीतियां बनाकर उसे इस अंधेरी गली से निकालने का भरोसा भी जगा सके। नेतृत्व के इस संकट को राजनीतिक अस्थिरता ने और गहरा किया है। प्रदेश की चुनौतियों से बेखबर राजनेता सिर्फ सत्ता की जोड़-तोड़ में जुटे हैं। शायद इसी का परिणाम है कि देश के निर्धनतम राज्यों में गिने जाने वाले इस प्रदेश की 42 प्रतिशत आवादी गरीबी रेखा से नीचे रहने के लिए अभिशप्त है। 90 के दशक के ये साल वस्तुतः पतन के वर्ष हैं, जो व्यापक राजनीतिक अस्थिरता के लिए याद किये जाएंगे। इस अस्थिरता ने अपनी खासी कीमत भी वसूली है। 10 सालों में इस प्रदेश ने 9 सरकारें देखीं, जो उसके लिए संकटों की सौगात लेकर आयीं। पिछले 5 सालों में करीब 800 जिलाधिकारियों एवं 1000 पुलिस अधीक्षकों के तबादले किए गए । इसके चलते राज्य पर तबादला भत्ते का भारी बोझ पड़ा । 1995-96 में तबादला भत्ते पर होने वाला 1.6 करोड़ रुपए का यह खर्च 1998-99 में बढ़कर 23 करोड़ हो गया । राजनीतिक दिवालिएपन की इन्हीं गतिविधियों के चलते 22,831 करोड़ रुपए की वार्षिक आय वाला यह प्रदेश 29,761 करोड़ रुपए खर्च करता है । जाहिर है कमाई से ज्यादा खर्च ने राज्य की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है । इस लगातार घाटे के चलते वह दिन दूर नहीं, जब बुनियादी ढांचा ढह जाएगा और शायद आवश्यक सेवाएं चलाने की स्थिति की भी सरकार न रह जाए । आंकड़े देखें तो उ.प्र. इसी ओर बढ़ रहा है । पिछले 5 वर्षों में राज्य सरकार के गैर विकास खर्चो में तो 4.53 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन विकास के लिए व्यय होने वाली धनराशि में 5.16 प्रतिशत की कमी हुई है । इसका परिणाम यह हुआ है कि नागरिक सुविधाओं में भारी गिरावट आई है । इस मद में खर्च होने वाली धनराशि में लगभग 4 प्रतिशत की कमी आई है ।
बढ़ता कर्ज
पिछले 5 सालों में राज्य के कर्ज में दोगुना वृद्धि दर के मुकाबले थोड़ी कम रही, लेकिन बाद में बढ़ गई । इसके कारण ब्याज अदायगी में भारी रकम खर्च करनी पड़ रही है । हालात यह है कि कुल राजस्व प्राप्तियों का लगभग एक तिहाई हिस्सा ब्याज अदायगी में चला जाता है । ‘नेशनल काऊंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनामिक रिसर्च’ के द्वारा किए गए एक अध्ययन में साफ चेतावनी दी गई है कि अगर राज्य की वित्तीय स्थिति को सुधारने तत्काल कारगर कदम न उठाए गए तो अगले 5 वर्षों में राज्य का कर्ज बढ़कर उसके सकल घरेलू उत्पाद का 43 प्रतिशत हो जाएगा । ब्याज अदायगी में ही उसे अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4.5 प्रतिशत हिस्सा खर्च करना पड़ेगा, साथ ही राजस्व घाटा बढ़कर 5 प्रतिशत हो जाएगा । ये हालात आने वाले महाविनाश की चेतावनी राजस्व हर साल वसूलता है, उसके डेढ़ गुना ज्यादा राशि उसे अपने कर्मचारियों के वेतनभत्तों और पेंशन पर खर्च करनी पड़ती है ।
पूंजी निवेश में पीछे
पूंजी निवेश के मामले में भी उत्तर प्रदेश, दक्षिण और पश्चिम के राज्यों की तुलना में बहुत पीछे है । वर्ष 1998-99 में इस राज्य में मात्र 73 हजार करोड़ रुपए का पूंजी निवेश हुआ, जबकि महाराष्ट्र में 1 लाख 47 हजार करोड़, गुजरात में 1 लाख 44 हजार करोड़ तथा आंध्र में 96 हजार करोड़ कर निवेश हुआ । गुजरात को छोड़कर दक्षिण-पश्चिम के सभी प्रमुख राज्यों में 20 प्रतिशत या उससे ज्यादा का विदेशी निवेश हुआ, पर उत्तर प्रदेश में यह मात्र 9.9 प्रतिशत रहा । एक अंग्रेजी पत्रिका द्वारा कराए गए सर्वेक्षण पर नजर डालें तो आगामी 5 वर्षों में अधिकांश बड़ी कंपनियां महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु में निवेश के पक्ष में हैं । उनमें 54 प्रतिशत कंपनियां महाराष्ट्र में पूंजी लगाना चाहती हैं । जबकि 47 प्रतिशत गुजरात में पूंजी निवेश को प्राथमिकता देंगी । उ.प्र. में सिर्फ 10 प्रतिशत कंपनियों ने निवेश की इच्छा जतलाई है । भविष्य के ये संकेतक बताते हैं कि हालात बड़े सुखद नहीं है । उ.प्र. ने अपनी अर्थव्यवस्था के सामने उपस्थित चुनौतियों को पहचानने और उनका समाधान करने में बहुत देर कर दी है । बड़े बाजार एवं आबादी के बावजूद यह हाशिए पर खड़ा दिखता है । उसमें निर्यात की व्यापक संभावनाएं हैं । उ.प्र. के चमड़ा, कालीन, पीतल और हाथकरधा उद्योग में अभी भी उम्मीदें तलाशी जा सकती हैं । पर्वतीय सौंदर्य और धार्मिक स्थल बड़े पर्यटन केंद्रों के रुप में उभर सकते हैं, विद्युत उत्पादन भी पूंजी बढ़ाने में सहायक हो सकता है । किंतु सत्ता की उठापटक में लगी प्रदेश की राजनीतिक जमातें क्या इस ओर ध्यान देंगी ? प्रदेश को सही नीति, श्रम शक्ति और संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए एक चंद्रबाबू नायडू का इंतजार है । यह इंतजार लंबा होगा उ. प्र. का चेहरा उतना ही बदरंग होता जाएगा ।
(16 जुलाई, 2000)
000
No comments:
Post a Comment