कब मिलेगी राजनीतिक अस्थिरता से निजात ?

उत्तर प्रदेश में में विधानसभा चुनावों में अभी विलंब है किंतु वहां का राजनीतिक कुरुक्षेत्र सजने लगा है। सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी अपने ‘पुरातात्विक महत्व के नेता’ के नेतृत्व में जहां हाल में हुए पंचायत चुनावों में सिमटती दिखी, वहीं समाजवादी पार्टी के बाद भाजपा अभी तक खुद को संबाल नहीं पाई है। 76 वर्षीय एक गुमनाम से नेता को बागडोर सौंपकर और कमजोर प्रदर्शन के बावजूद उसे बनाए रखने में भाजपा की रणनीति क्या है, इसे समझ पाना राजनीति के पंडितों के लिए भी आसान नहीं है । राज्य की सरकार हर मोर्चे पर अपनी अक्षमता और दयनीयता के लिए ख्याति कमा रही है। राज्य सरकार के 30 मंत्री कथित तौर पर गिरोहों के मुखिया हैं। राजनीति और उसके अपराधीकरण की ऐसी जीवंत मिशाल शायद ही कहीं इस रूप में देखने को मिले। राज्य का गृह मंत्रालय स्वयं मानता है कि माफिया गिरोहों का अर्थव्यवस्था के कई हिस्सों पर नियंत्रण है। खराब प्रशासन और तबादलों के कारोबार का व्यापार चरम पर है। आर्थिक हालात बदतर हैं। कुल मिलाकर राज्य सभी क्षेत्रों में अराजकता और सरकार विहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। सरकारें बेलगाम होती स्थितियों को नियंत्रित करने के लिए होती हैं। वे शासन करती हैं, समस्याओं के समाधान ढूंढती है, विकास और बेहतरी के काम को अंजाम देती हैं, लेकिन उ. प्र. में सरकार यह सब नहीं करती । सरकार विहीनता के ये हालात राजनीतिक अस्थिरता की स्थितियों से उपजे हैं। त्रिशंकु विधानसभाओं से निकले कमजोर नेताओं के हाल में प्रदेश की 16 करोड़ जनता का भविष्य गिर भी पड़ा है। मुलायम दौर झेलने के बाद उ. प्र. अब ‘अराजक प्रदेश’ में बदल गया है, जहां ‘शक्ति’ का ही सिद्धांत चलता है।

जातीय राजनीति
मंडल-कमंडल की राजनीति ने प्रदेश को सांप्रदायिक और जातीय युद्ध का अखाड़ा बना दिया है। यदि उ. प्र. सामाजिक न्याय की ताकतों की समर भूमि है तो ‘कमंडल राजनीति’ के लोगों द्वारा ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की हुंकारों की भूमि भी यहीं रही है।ऐसे आंदोलनों से प्रदेश का सामाजिक ढांचा चरमरा गया है। जातियों-वर्गों में बंटे लोगों में सच्चाई की आवाज कहन-सुनने का हौसला कमतर हुआ है। सिद्धांत हीन गठबंधनों और आपराधिक राजनीति के घालमेल में सब कुछ बदल सा गया है। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस पार्टी को हुआ। इस लहर में भाजपा, सपा और बसपा 3 शक्तियां उभर कर सामने आयीं। विचारधारा के आग्रह ढीले पड़े और तात्कालिक राजनीति का ‘वैकल्पिक दर्शन’ सामने आया। बसपा के नेता कांशीराम और मायावती राजनीति ही भजापा के गले फांस बन गई है। वह सभी वर्गों में स्वीकृति पाने की गरज से सबकी नाराजगी का केंद्र बन गई है। सत्ता में रहने के कारण लोगो की आशाओं-आंकाक्षाओं पर खरा न उतरने का रोष तो उसे भुगतना ही पड़ रहा है, साथ ही जातीय समीकरणों के हिसाब से भी वह निरंतर पिट रही है। हाल के पंचायत चुनावों और इसके पूर्व हुए लोकसभा चुनावों में उसके दयनीय प्रदर्शन को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए । कल्याण सिंह के जाने के बाद पिछड़े वर्गों में जहां गलत संदेश गया, वहीं सवर्णों की आकांक्षाओं पर भी भाजपा खरी नहीं उतर सकी। अकेले वाजपेयी के करिश्मों पर निर्भरता ने उसे उ. प्र. में दयनीय बना दिया है। हालात यह हैं कि आनेवाले विस चुनाओं में उसे सत्ता में आने के लिए बसपा से तालमेंल करने की मिन्नतें करनी पड़ रही हैं, यही हालात कमोबेश कांग्रेस के है। उसके प्रदेश आध्यक्ष सलमान खुर्शीद अपने ही पार्टी के नेताओं द्वारा पैदा किए जा रहे संकटों से हलाकान हैं। राज्य में कोई करिश्मा ही कांग्रेस की स्थिति में सुधार ला सकता है।

सपा की बढ़ती ताकत
इसके विपरीत समाजवादी पार्टी उ.प्र. में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित है। पार्टी के नेता मुलायम सिंह की जुझारू प्रवृत्ति, लगातातर दौरों और सक्रियता ने उनके जनाधार में वृद्धि की है। कल्याण सिंह के भाजपा से अलग होने से पिछड़ों की राजनीति में मुलायमसिंह अब ‘सिरमौर’ बन गए हैं। कल्याण सिंह की सारी ताकत अब भाजपा का खेल बिगाड़ने पर केंद्रित है। यह स्थिति निश्चित रूप से मुलायम सिंह के लिए ही सुखद होगी।उ.प्र. का राजनीतिक प्रबंधन आज हर पार्टी ‘जाति’ को केंद्र में रखकर कर रही है। अयोध्या के बाद कल्याण सिंह के भाजपा के मंच पर अवतरण ने अगली-पिछड़ी जातियों का जो गठजोड़ बनाया था, वह अब दरक गया है। भाजपा इससे गहरे द्वंद में है। कल्याण के हटने से मुलायम सिंह इस वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा चुके हैं। कुछ सवर्ण कांग्रेस की तरफ भी जा रहे हैं। ऐसे में भाजपा की लिए हालात बदतर ही हैं।

बसपा का उभार
अपने विधायक दल में कई बार टूट-फूट के बावजूद उ.प्र. में मायावती के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी का जनाधार निरंतर बढ़ा ही है। पिछले लोकसभा चुनावों एवं हाल में हुए पंचायत चुनावों में बेहतर प्रदर्शन से पार्टी की उम्मीदें उफान पर है। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में मायावती भाजपा को मदद के लिए मजबूर कर सकती हैं। मुलायम से दोनों दलों के खराब रिश्ते संबंधों का आधार बनाते ही हैं। दलितों के बीच राजनीतिक चेनता जगाने एवं उन्हें लामबंद करने में मायावती की मिली सफलता वास्तव में रेखांकित करने योग्य है। यही अर्थों में उ.प्र. में सत्ता की होड़ में अब मुलायम सिंह यादव और मायावती में ही असली मुकाबला है। लेकिन यह समझना भारी भूल और चीजों को सरलीकृत करके देखना होगा कि भाजपा वहां समाप्त हो गई है। वह (भाजपा) आज भी वहां बड़ी ताकत है। केंद्र और राज्य दोनों में उसकी सरकारें हैं । संघ परिवार के तमाम संगठनों की साझा शक्ति चुनावों में उसके लिए सहायक होती है। ये चीजें चुनाव परिणामों को गहरे प्रभावित भी करती हैं। किंतु इतना तो स्वीकारना ही होगा कि उ.प्र.का सामाजिक समीकरण भाजपा के खिलाफ है। इसे अनुकूल करने की कोई तैयार भी भाजपा के पास नहीं दिखती। सार में कल्याण सिंह की पार्टी की जीत और भाजपा का चौथे स्थान पर जाना इसी जातीय समीकरण के प्रतिकूल हो जाने का संदेश था। आगामी विधानसभा चुनावों तक समीकरण क्या होंगे कहा नहीं जा सकता पर ताजा हालात में उ.प्र. को अस्थिरता के महारोग से बचाना सबसे कठिन सवाल है। आगामी चुनाव यदि राज्य को राजनीतिक स्थिरता दे सके तो यह बात भारतीय लोकतंत्र और उ.प्र. दोनों के लिए शुभ होगी। तभी उ.प्र. सरकार विहीनता के अराजक दौर से बाहर आ सकेगा।

(16 जुलाई, 2000)
000

No comments: