प्रलयंकारी बाढ़ के कारण खोजना जरुरी
उत्तर प्रदेश इस बार सदी की सबसे प्रलयंकारी बाढ़ की विनाशलीला का केन्द्र बना हआ है । एक हजार लोगों की मौत और लगभग पौने तीन करोड़ रुपए के नुकसान के बावजूद यह सिलसिला थमने को नहीं है । प्रदेश के 39 जिलों की 3 करोड़ आबादी प्रशासनिक लापरवाही, सत्ताधीशों की संवेदनाहीनता और अदूरदर्शिता का खामियाजा भुगत रही है । अनुमानों और पूर्व घोषणाओं के बावजूद इस प्रलयलीना के प्रति आपराधिक लापरवारी दिखाकर उ. प्र. की सरकार ने प्रदेश को जलमग्न कर दिया । प्रभावित लोगों का आर्तनाद जब तक कर्णधारों के कानों तक पहुंचता, बहुत देर हो चुकी थी । अब हालात बेकाबू हैं ।
बाढ़ से सर्वाधिक प्रबावित पूर्वी उ. प्र. का इलाका वैसे भी सरकारी उपेक्षा और दमन का शिकार रहा है नेपाल-बिहार की सीमा से लगे देवरिया, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, बस्ती, सिद्धार्थनगर से लेकर वाराणसी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ की पूरी पट्टी गरीब किसानों, खेतिहारों और कृषि-कर्म पर आधारित है । वाराणसी में साड़ी, भदोही में कालीन, सुल्तानपुर, रायबरेली में लगे एकाध उद्योगों को छोड़कर सारा इलाका उद्योगहीन साधनहीन है । नवधनाढ्यों की जो थोड़ी बहुत फौज इन इलाकों में दिखेगी वे अपराध, राजनीति या ठेकेदारी के बल पर ‘बड़े’ बने हैं, परन्तु उद्यम या उद्यमशीलता का यह पूरा क्षेत्र कुचालकर है । ऐसे में बाढ़ की हर साल आने वाली तबाही किस कदर किसानों की कमर तोड़ देती है यह किसी से छिपा नहीं है । सरकारी आंकड़ों पर ही भरोसा करें, तो अकेले इस साल की बाढ़ में ही सोलह सौ करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ है । ऐसे में इस त्रासदी से लड़कर क्षेत्र के लोग कितने दिनों में कमर सीधी कर पाएंगे, कहा नहीं जा सकता ।
खबरें बताती हैं कि प्रशासन के बाढ़ के पूर्वानुमानों के बावजूद इससे निपटने के प्रतिरोधी उपाय नहीं किए, नहरों की सफाई का काम नहीं हो पाया न ही नदियों के तटबंध पर बोल्डर फेके गए । बांधों की सालाना मरम्मत का काम भी लटकाए रखकर सरकार ने स्वयं विनाशलीला को आमंत्रण दिया । इसके चलते ही शायद नदियां बेकाबू हुईं । बाढ़ और ततटबंध टूट गए, गोरखपुर के आसपास टूटे बांध तो सिर्फ इसीलिए टूटे कि वहां बोल्डर नहीं थे । नहरों का ‘ओवरफ्लो’ हो जाना सिर्फ नहरों की सफाई न होने के कारण संभव हो पाया । 89 बांधों में आई दरारें भ्रष्टाचार की कथा को बयान करती हैं, इन सबकी मरम्मत का जिम्मा सिंचाई विभाग का ही था । अब राज्य के सिंचाई मंत्री ओमप्रकाश सिंह समाचार माध्यमों पर खिसियानी हंसी के साथ स्वीकार करते फिर रहे हैं कि हां तटबंध टूटे और लापरवाहियां हुई हैं । पर क्या मात्र स्वीकारोक्ति से जनता के कष्ट कम हो जाएंगे । राज्य शासन की लापरवाही का आलम यह है कि वह अभी तक केन्द्र सरकार के सामने अपना पक्ष जोरदार ढंग से रखकर न तो मदद मंजूर करा पाई, न ही अन्य राज्यों या स्वयंसेवी संगठनों को मदद के लिए प्रेरित कर सकी । बाढ़ आने से पूर्व विधानसभा में दो दिन की चर्चा के बाद भी सरकार नहीं चेती, और तो और स्वयं मु्ख्यमंत्री कल्याण सिंह भी बाढ़ पीड़ित इलाकों में 23 अगस्त को गए, ऐसा तब हुआ जब 24 अगस्त को श्रीमती सोनिया गांधी का इन क्षेत्रों में आने का कार्यक्रम घोषित हो गया ।
अब सवाल यह उठता है कि हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए सरकारी प्रयास क्या इतने अगंभीर और वायवीय थे कि हालात इतने बदतर हो गए । आजादी के बाद बांधों ओर नहरों का तंत्र खडा करके हमने जल प्रबंधन की जो तैयारियां की क्या वे बेमानी हैं ? बाढ़ों का सालाना सिलसिला और उसके बाद चलने वाले राहत के कामों का सिलसिला आखिर कब तक जारी रहेगा ? इन सबके बीच जन-धन हानि को छोड़ें तो भी प्रशासनिक स्तर पर कितना बड़ा भ्रष्टाचार फलता-फूलता है यह किसी से छिपा नहीं हैं । इसी बाढ़ में सड़ा खाना बांटने की शिकायत पर जनता का आक्रोश गोरखपुर में राज्य शासन के एक मंत्री शिवप्रताप शुक्ल को झेलना पड़ा । चेतावनियों को अनदेखा करने, समस्याओं को टालने, उनके तात्कालिक समाधान खोजने की जो अद्भुत प्रशासनिक शैली हमने 50 सालों से विकसित की है निश्चय ही उससे ऐसी स्थाई समस्याओं का निदान संभव नहीं है । इतना समय और संसाधन खर्च करने के बावजूद हम अपने गांवों, खेतों, लोगों और मवेशियों को कब तक प्राकृतिक विनाशलीलाओं का हिस्सा बनते जाने देंगे ? निश्चय ही नदियों का काम उफनना है, वे उफनेंगी पर उफन कर वे हजारों गांव बहा ले जाएं तो हमारे समूचे तंत्र का क्या मतलब ? आजादी के बाद इन विनाशलीलाओं पर नियंत्रण के लिए हमने बड़े बांधों, जल परियोजनाओं की शुरुआत की नहरें बनाकर गांवों तक पानी पहुंचाने के इंतजाम किए। इस जल प्रबंधन के पीछे तबाही से बचने और गांवों को खुशहाल बनाने की नीयत संयुक्त थी। हमारा सपना था कि ये बड़े-बड़े बांध बाढ़ की त्रासदी को झेल जाएंगे और लोगों पर उसका असर नहीं पड़ेगा, लेकिन विकास के प्रतीक ये बांध बहुत कुछ नहीं कर पाए। नदियां नए रास्ते तलाशती गई। बाढ़ कम होने के बजाए ज्यादा आने लगी। उ. प्र. की बाढ़ को नजीर मानें तो यह भीषणतम तबाही है। ऐसे में विकास का चक्र आगे जाने के बजाए पीछे खिसकता दिखता है। बाढ़ रोकने में बड़े बांघ, तटबंध विफल हो रहे हैं यह साफ दिखता है। फिर संभव है देश के रक्त में घुस आए भ्रष्टाचार के अंश भी अपना खेल दिखाते हों। हम बाधों के प्रति उचित प्रबंधन का दिखावा तो करते हैं, पर उसे कार्यरूप में न बदल पाते हों। इस सबके बावजूद यह बात तो साफ तौर पर कही जा सकती है कि जलप्रबंधन में हमारी कुशलता नाकाफी साबित हुई है। ग्रामीण विकास के नाम पर हम आज भी सड़कें बनाने की बात करते हैं। सिंचाई परियोजनाओं को शुरू करने और उन्हें व्यवस्थित करने की नहीं।
ऐसे समय में बाढ़ के नाते हर साल लोगों की जिंदगी में तबाही लाने, अरबों रुपए के राहत के काम करके हम फिर अगली बाढ़ के इंतजार में चुप बैठ जाते हैं। इसी काहिल जल प्रबंधन और अकुलशलता ने उ. प्र. को आज के हालात में पहुंचाया है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री इन्हीं आपदाओं में तेजी से बहती है। जनता भले बेहाल हो, राहत के नाम पर नौकराशाही को ‘लूट’ के अवसर तो मिल ही जाते हैं। अगर जान-माल की ऐसी त्रासद स्थितियों की पुनरावृत्ति हम रोकना चाहते हैं तो हमें बनावटी राहत के मिशनों, हवाई सर्वेक्षणों से ऊपर उठकर एक नई शुरुआत करनी होगी, उन कारणों तथा नदियों की पड़ताल करनी होगी जो इस लीला की विभीषिका में मददगार हैं। तबाही के माध्यमों की शिनाख्त और उनके अनुकूल जल प्रबंधन के रास्तों की तलाश की गई, तो संभव है कि ये स्थितियां इतनी बेलगाम न हों । उ. प्र. और बिहार की त्रासकारी बाढ़ के संदेशों को पढ़कर यदि हम किसी बेहतर दिशा में बढ़ सकें तो शायद अगली सदी में हमें ऐसी विभीषिकाओं पर शर्मिन्दा न होने पड़े।
(1 सितंबर,1998)
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