दरकती आस्थाओं और मोहभंग का बरस


नए साल की अगवानी में, 1998 को अलविदा कहने को बैठे हम बहुत खाली-खाली से हैं, काफी रीते-रीते से । धुंधलका इतना है कि उजास की कोई किरण नजर नहीं आती। इस साल ने ऐसा कोई मानक नहीं गढ़ा, जिसके भरोसे आश्वस्ति के कुछ चिन्ह भी नजर आएं, राजनीति के रंगमंच से लेकर समाज जीवन के हर क्षेत्र में अंधेरा बढ़ता नजर आया। राजनीति के शिखर पुरुष अटलबिहारी वाजपेयी अपनी आभा खोते नजर आए, तो संसद में अमर्यादित आचरण के चिन्ह आम हो गए। परमाणु विस्फोटों से देशाभिमान को जगाने का नारा पिलपिला होता नजर आया, तो स्वदेशी और स्वावलम्बन की उलटबासियां भी खूब देखने को मिलीं। अमरीका की नजरे-इनायत पाने की सरकारी कोशिशों में बम की गर्मी हवा हो गई। भीमा बिल पर मचे धमाल ने साबित कर दिया कि समर्थ पूंजीवादी ताकतों का एजेंडा ही अब काम आएगा। जब पूरी दुनिया ही एक प्रकार के चमकीले उपभोक्तावाद की गिरफ्त में है, तो हमारे सत्ताधीशों से ‘जनता के एजेंडे’ पर चलने की आशाएं व्यर्थ हैं। इसीलिए उन्होंने ‘रार’ ठानने के बजाए, आसानी से ‘हार’ मान ली है।

वैकल्पिक राजनीति और दर्शन के प्रति मोहभंग इस साल की नकारात्मक उपलब्धि है। पिछले सालों में जहां एक अखिल भारतीय दल के नाते कांग्रेस पार्टी सिकुड़ती नजर आयी थी, वहीं इस साल भाजपा के वैकल्पिक राजनीतिक दर्शन का जादू टूटता नजर आया। 3 प्रदेशों से आए चुनाव परिणामों ने साफ संकेत किए कि वह इस विकल्प के बदले कांग्रेस को चाहती है। सच कहें तो आम जन की अनास्था और राजनीतिक तंत्र के प्रति मोहभंग इस साल और गहरा हुआ है । यह भी सच है कि जनता के पास इस व्यवस्था के विकल्प नदारद हैं, पर मौजूदा तंत्र में उसकी अनास्था साफ तौर पर प्रकट हुई है। लोगों का न सिर्फ भरोसा टूटा है, वरन वे आत्मविश्वास से भी रिक्त हुए हैं। भरोसा जोड़ने वाली ताकतें फिलहाल लापता वामधारा और समाजवादी राजनीति के हाल और भी बुरे हैं। ये सब सत्ता की उन्हीं नकारात्मक वृत्तियों से ग्रस्त हैं, जिसके चलते ये हालात पैदा हुए हैं। लालू, मूलायम सिंह, कांशीराम, मायावती, सुरजीत सरीखे लोग निश्चय ही अब किसी परिवर्तनकामी लंबी लड़ाई की अगुवाई नहीं कर सकते । क्योंकि इनके पास न तो डॉ. लोहिया या डा आम्बेडकर जैसा वैचारिक तेज है, न ही धैर्य । डॉ. लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ उनके समाजवादी शिष्यों ने लोकलाज की सीमाएं तोड़ दी हैं। एक बेऊर जेल में घोटाले के आरोप में बंद हैं, तो उनकी पत्नी मुख्यमंत्री पद की मर्यादाएं भूल कर राज्यपाल को अपशब्द कह रही हैं। इसके चलते पूरे देश में एक राजनीतिक शून्य नजर आता है। ऐसे में विनोद मिश्र जैसे जमीनी और मानवीय गुणों से लैस राजनीतिक कार्यकर्ता की मृत्यु एक बड़ा शून्य रचती है। भाजपा और कांग्रेस ने यह साबित कर दिया कि उनकी नजर में विश्व बैंक और अमरीका का एजेंडा सर्वोपरि है । हालांकि इस साल में भाजपा हिंदुत्व से उदार लोकतंत्र की ओर बढ़ती नजर आयी और सत्ता ने उसकी वाचालता को कम किया है। इसके बावजूद आर्थिक मोर्च पर उसने निराशा ही किया है। महंगाई पर नियंत्रण के सवाल पर उसे देश भर से ‘नकारेपन’ का तमगा मिला, तो शुचिता की उसकी राजनीतिक यात्रा पर भी सवालिया निशाल गले। आर्थिक सवालों पर पार्टी के अंदर और बाहर मचा द्वंद सतह पर आ गया। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्न खड़ा करना पड़ा।

भ्रष्टाचार के सवाल पर पिछले 2 साल बेहद दयनीय चित्र प्रदर्शित करते नजर आए। 1996 का साल तो इस दृष्टि से बहुत घटनाप्रद साबित हुआ था। बड़े-बड़े राजनेता घोटालों में आकंठ डूबे नजर आए। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव से लेकर विपक्ष के नेताओं पर भी आरोपों के छींटे थे। यह साल इस सिलसिले को बढ़ाता नजर आया। रोमेश शर्मा जैसे ‘राजनीतिक डॉन’ की गिरफ्तारी ने हमारे समूचे राजनीतिक तंत्र की नैतिकता और समझदारी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया । पूंजीपतियों-दुबई में बैठे अपराधियों-नौकरशाहों-राजनेताओं के समुच्चय से रोमेश ने जो संजाल रचा था, वह अकेला हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर कालिख पोतने के लिए पर्याप्त है। इतना ही नहीं, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग के पहरुए सुखराम से दोस्ती करते नजर आए। अपराधियों का उ. प्र. के मंत्रिमंडल में राजतिलक हुआ, तो ‘वंदे मातरम् की अति भक्ति में एक मंत्र को मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा। अब बताया जा रहा है कि उक्त मंत्री भ्रष्ट भी था, किंतु मंत्रिमंडल से उसकी विदाई के लिए भ्रष्टाचार नहीं, ‘वंदे मातरम्’ कारण बना सच कहें तो भ्रष्टचार और उस पर अंकुश लगाने का कोई मार्ग इस साल भी नजर नहीं आया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले अण्णा हजारे जैसे समाजसेवी को जेल जरूर जाना पड़ा ।

वाजपेयी सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को अपने राष्ट्रीय एजेंडे में प्रमुखता दी थी । सच कहें तो इस साल का यह संकल्प नए भारत की बुनियाद गढ़ने में सहायक हो सकता था लोगों को शिक्षित करने का यह एजेंडा मुरली मनोहर जोशी और हमारे प्रांतों के माननीय शिक्षा मंत्रियों के संघर्ष की भेट चढ़कर रह गया। समस्याओं के हल तलाशने, रास्ते बनाने के बजाए राजनीतिक, मुठभेड़ों में कैसे प्राथमिकता के सवाल दरकिनार हो जाते हैं, प्राथमिक शिक्षा पर विमर्श के बजाए ‘सरस्वती वंदना’ पर मचा हंगामा इसका उदाहरण हैं। कला साहित्य और संस्कृति के श्रेत्र में प्रतिबंधों का दौर-दौर गर्म रहा। ‘मी नाथूराम बोलतोय’ से शुरू हुआ यह सिलसिला अब ‘फायर’ पर जाकर अटका है। सांकृतिक सवालों पर स्वस्थ बहस के बजाए अपने राजनीतिक चश्में से विश्लेषण के वातावरण न माहौल को गंदलाया ही। शिवसेना या फायर के पक्ष में खड़े लोग इस आरोप से बरी नहीं हो सकते। हो-हल्ले और हमले के बजाए स्वस्थ बहसों से भागने पर जोर है।

निश्चय ही इससे स्वच्छंद वादियों का मनोबल बढ़ा और उन्हें एक नैतिक आवरण भी प्राप्त हुआ। संस्कृति के क्षेत्र में ऐसे ही उदाहरणों ने इस साल को त्रासद बनाया। ‘नाथूराम ’पर प्रतिबंध लगाकर वाजपेयी सरकार ने एक प्रकार से उस परंपरा को वैध करार दिया, जिसके चलते मुस्लिम हुड़दंगियों के जोर पर ‘सैनेटिक वर्सेस’ पर प्रतिबंध लगा था । इस सबके बीच जनकवि नागार्जुन की मौत भी साहित्य जगत के लिए इस साल की सबसे बुरी खबर रही। कवि प्रदीप, रामरिख मनहर, हिंदी आलोचक विजयेन्द्र स्नातक का बिछुड़ जाना भी इसी साल के हिस्से का एक बड़ा दुख है।

कुल मिलाकर यह साल ज्यादा दुखों और थोड़ी-सी खुशियों को समेंटे 1999 की देहरी पर आ पहुंचा है। ये छोटी-छोटी खुशियां हैं एशियाड में कमोबेश बेहतर प्रदर्शन भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियां आदि । उजास की ये किरणें ही शायद नए आ रहे साल को ज्यादा बेहतर, ज्यादा संभावनाशील और ज्यादा मानवीय बनाने में सहायक बनें। अलविदा.....98 !

(31 दिसम्बर,1998)
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