प्रतीक्षित है विकास की ‘गंगा’ लाने वाला ‘भागीरथ’


उत्तर प्रदेश के 13 पहाड़ी जिलों की लगभग 1 करोड़ आबादी हर्षविभोर है । पहाड़ ढोल-नगाडों की आवाज से गूंज रहे हैं । जाहिर है कि यह जश्न 62 सालों से संघर्षरत जनता के अपने पृथक राज्य के गठन का विधेयक पास होने के चलते मनाए जा रहे हैं । जीवन के सतत संघर्ष और बुनियादी जीवन की जरुरतों के लिए भी पलायन, पहाड़ के लोगों की त्रासद जीवन-कथा को बयान करता है । यह अकारण नहीं है कि आज भी उत्तरांचल की पूरी अर्थव्यवस्था मौसमी पर्यटन और बाहर कमाने गए उत्तराखंडियों के ‘मनीआर्डर’ पर ही निर्भर है । नया राज्य इसलिए भी खुशियां दोगुनी कर जाता है । आंखों के सामने सपने तैरने लगते हैं- जब पहाड़ के लोगों के पास अपना छोटा सा राज्य, राजधानी, हाइकोर्ट और विकास के तमाम क्षितिज होंगे । लेकिन यह सारा कुछ सपना ही है, इसे साकार करने के लिए उत्तरांचल को एक ‘भागीरथ’ की जरुरत है जो विकास इस ‘गंगा’ को पहाड़ों पर उतार कर यहां के लोगों के सपने सच कर सके ।

फिलहाल पहाड़ के मौजूदा 3 जिलों में उद्योगों के नाम पर कुछ नहीं है । सो नई सरकार को यहां की आर्थिक संभावनाओं का पता लगाकर उसका दोहन करना होगा । राजनीतिक-आर्थिक एजेंडे का सही निर्धारण और क्रियान्वयन ही इस क्षेत्र के भविष्य का निर्धारण करेगा ।

राजनीति परिदृश्य
पहाड़ों का मतदाता आजादी के बाद से ही कांग्रेस को प्राथमिकता देना आया है। पं. जवाहरलाल नेहरु से भावनात्मक लगाव तथा उ.प्र के प्रथम मुख्यमंत्री पं. गोविदवल्लभ पंत के इसी क्षेत्र का निवासी होने के नाते यह क्षेत्र कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग बना रहा है । उसके बाद आए नेताओं नारायण दत्त तिवारी, हेमवती नंदन बहुगुणा, ब्रह्मदत्त, के. सी. पंत की भी कांग्रेस से सम्बद्धता रही । ऐसे में कांग्रेस यहां महत्व पाती रही । क्षेत्र के पिछड़ेपन का आरोप यदि केंद्रीय सरकारों को जाता है तो यहां की स्थानीय राजनीति ने भी अपने गृह क्षेत्र का प्रायः विचार नहीं किया । प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पं. गोविंदवल्लभ पंत के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा भी उ. प्र. के मुख्यमंत्री रहे । फिर नारायण दत्त तिवारी 4 बार उ. प्र. के मुख्यमंत्री बने । सो क्षेत्र के पिछडे़पन के लिए इस नेतृत्व को भी याद करना चाहिए । उसका कारण यह भी रहा कि पहाड़ का सीमित क्षेत्र होने के कारण ‘बड़ा नेता’ बनने की चाह रखने वाले लोग अन्य क्षेत्रों की तरफ भी गए और वहां से जनाधार बनाकर राजनीति की । जैसे नारायण दत्त तिवारी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष के रुप में अपना सामाजिक जीवन इलाहाबाद में प्रारंभ किया । हेमवती नंदन बहुगुणा और डा. मुरली मनोहर जोशी तो इलाहाबाद को ही केंद्र बनाकर राजनीति करते रहे । कृष्णचंद पंत को दिल्ली इतनी भायी कि वे पहाड़ों से लगाव ही भुला बैठे । हालांकि उनकी पत्नी इला पंत नैनीताल से लोकसभा का चुनाव जीता पर विकास के कामों की तरफ उनका भी रुझान नहीं रहा । वर्तमान में बच्ची सिंह रावत केंद्र सरकार में राज्यमंत्री हैं, तो रमेंश पोखरियाल ‘निशंक’ उ. प्र. सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं । भाजपा के ये नए नेता पहाड़ों पर एक नया नेतृत्व खड़ा करने का काम कर रहे हैं । नित्यानंद स्वामी, उ.प्र. विधान परिषद के सभापति हैं । सो यह कहना बहुत मुश्किल है पहाड़ से सक्षम राजनेता नहीं उभरे । सतपाल महाराज, अकबर अहमद डंपी, भुवनचंद खंडूरी्, बलराज पासी, मनोहरकांत ध्यानी, शिवानंद नैटियाल आदि ऐसे नाम हैं जो राजनीतिक क्षेत्र में अपनी पहचान रखते हैं ।

उत्तराखंड की कांग्रेस समर्थक राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ उस समय आया जब 1989 में पिछड़ों को आरक्षण देने का फैसला किया गया । यह आरक्षण विरोधी आंदोलन जहां इस क्षेत्र की बहुसंख्यक अगड़ी जातियों को आक्रोशित कर गया, वहीं पृथक रारज्य के आंदोलन को भी इससे तेजी मिली । भाजपा ने इस अवसर का पूरा लाभा उठाया और उत्तरांचल के आंदोलनकारियों पर मुलायम सिंह की तत्तालीन सरकार की बर्बरता ने भाजपा को वहां सक्षम दल के रुप में स्थापित कर दिया । यह वही समय था जब नारायण दत्त तिवारी जैसे बड़े नेता भी भाजपा के एक अपेक्षाकृत युवा नेता बलराज पासी से चुनाव हार गए । उत्तरांचल से विधानसभा के कुल 22 विधायक चुने जाते हैं, जिनमें वर्तमान में 17 भाजपा के और 5 अन्य दलों के हैं । संभव है कि पृथक राज्य की अधिसूचना जारी हाने के बाद मौजूदा विधायकों के सा भाजपा अंतरिम सरकार बनाए ।

आर्थिक-चुनौतियां
नए राज्य के गठन हेतु उत्तरांचल को लागभग 2000 करोड़ रुपए संरचनात्मक विकास पर खर्च करने होंगे । क्षेत्र में पर्यनटन ही सबसे बड़ा रोजगार का साधन है और गांव ‘मनीआर्डर अर्थव्यवस्था’ पर पल रहे हैं । ऐसे राज्य के सामने आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की कड़ी चुनौतियां दरपेश हैं । सबसे अहम सवाल यह है कि राज्य को कितना राजस्व प्राप्त होगा ? वह आत्मिनिर्भर कैसे हो सकेगा ? वहां के प्रशासकीय ढांचे पर भी चिताएं जाहिर की जा रही हैं। उत्तर प्रदेश, स्वयं आर्थिक दृष्टि से एक लड़खडाता हुआ राज्य है और उस पर वर्तमान में 78,000 करोड़ रुपए का कर्ज है। यदि राज्य का परिसंपत्तियों के बंटवारे के समय इस विशाल कर्ज का छोटा भी अंश उत्तरांचल पर डाल दिया गया तो उसके लिए हालात कष्टप्रद हो जाएंगे। जाहिर है केंद्र को उत्तरांचल को आरंभिक दौर में बहुत संभालना होगा । तब सारा कुछ ठीक रहा तो शायद भविष्य में वह हिमाचल प्रदेश की तरह आत्मनिर्भरता भी प्राप्त कर ले। हालांकि पयर्टन के अलावा फल प्रसंस्करण इकाइयों , औषधीय पौधों की खेती, नई पनबिजली परियोजनाओं का आरंभ यहां की आर्थिक स्थिति में खासा बदलाव ला सकता है पर ये देर की बातें हैं।

सत्ता का विकेंद्रीकरण
सही अर्थों में देखा जाए तो छोटे-छोटे राज्य बनाकर ही हम विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । पूर्वोत्तर के असम को तोड़कर बनाए गए राज्य इसका उदाहरण राज्यों का राजधानियों तक सीमित रह जाते हैं। नौकरशाही स्तर पर यह शक्तियां जिला मुख्यालय पर केंद्रित रह जाती हैं । इससे रोजगार, शिक्षा व सुखी जीवनकी तलाश में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। यह बात हमारे प्रशासनिक ढांचे के केंद्रीकरण और विकास की गलत संरचना व नीति के ही कारण पैदा हुई है।

छोटे राज्य एक सांस्कृतिक इकाई के रूप में ही नहीं एक विकास के प्रकल्प के रुप में सामने आएं तभी इनकी उपयोगिता सिद्ध हो पाएगी । छोटे राज्यों के निर्माण से प्रशासनिक खर्चों में बढ़त होती है, किंतु यदि इस बढ़ोत्तरी के बावजूद यदि हम विकास उत्पादन, रोजगार सृजन तथा जीवन स्तर में सुधार जैसी उपलब्धियां प्राप्त कर सकें तो यह बात खलेगी नहीं। उत्तरांचल यदि अपने भविष्य के लिए देख गए सपनों को गढ़ सका तो वह सारे देश के समक्ष छोटे राज्यों के पक्ष में एक नजीर (प्रमाण) बनकर खड़ा होगा। छोटे राज्य किस प्रकार सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति के आयाम गढ़ सकते हैं, यह मौका देश ने उत्तरांचल और वहां की महान जनता को दिया है। लंबे संघर्ष के बाद मिली इस उपलब्धि का वहां के नए शासक किस रचनात्मकता और पारदर्शिता के साथ उपयोग करते हैं, भविष्य का इतिहास उसे ही देखकर लिखा जाएगा।

(13 अगस्त,2000)
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