छंट जाएंगे निराशा और अवसाद के बादल
आजादी का पर्व हम हर साल मनाते हैं। और उन शहीदों का स्मरण करते हैं जिन्होंने हमारे लिए एक खुशहाल भारत का सपना देखा था। 1947 में मिली आजादी के 5 दशक से ऊपर गुजर जाने के बाद 15 अगस्त की सारी उत्सवधर्मिता के बावजूद कहीं न कहीं हमारे लोकतंत्र से लोगों का भरोसा दरक रहा है। जन-मन पर अवसाद की परतें गहराती जा रही हैं। लोगों में यह विश्वास पैठता जा रहा है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मं अपनी सारी विशेषताओं के बाद भी आम आदमी के लिए जगह सिकुड़ रही है। आमतौर पर बुद्धिजीवी और विचारक अनेक मुद्दों पर अपने वर्तमान से असंतुष्ट ही रहते हैं लेकिन यह दौर विचित्र है जब यह असंतुष्टि तेजी से निराशा का रूप ग्रहण कर रही है। 5 दशकों की इस यात्रा ने हमारे राष्ट्रीय मानस को तोड़कर रख दिया हा। शायद इसीलिए बुनियादी सवालों पर हमारी राजनीति और समाज व्यवस्था में कोई हलचल दिखायी नहीं देती । पहले भ्रष्टाचार के साधारण प्रसंगों पर भी उठने वाली प्रतिरोधी आवाजें अब वह रूप नहीं ले पार्तीं। ऐसा आजादी के आंदोलन और उसके कुछ समय बाद तक हमारी चेतना झकझोर जाया करती थीं।
राजनीतिक संस्कृति की पतनशीलता के रोज प्रस्तुत हो रहे उदाहरणों ने शायद हमारे मन को संवेद नहीं बना दिया है और राष्ट्रजन में ‘होइ हैं वही जो राम रचि राखा’ जैसी भावना का विस्तार हुआ हैं। मर्यादा विहीन आचरण, आज मौजूदा समाज की सामान्य घटना मान लिए जाने हैं। सवाल यह उठता है कि नैतिक आदर्शों के लिए याद की जाने वाली भरतीय राजनीति जिसने गांधी, तिलक, गोखले, मौलाना आजाद और नेहरू जैसे आदर्श प्रस्तुत किए। जिसने आजादी के आंदोलन में आदर्श, न्यायकारी, संपन्न और समतावादी समाज का सपना देखा। वह अपने इतने उर्वर वैचारिक अधिष्ठान से भटककर सिर्फ 50 सालों में कहां से कहां पहुंच गयी। सपने जगाने और उन्हें सच कर दिखाने की सुभाष चंद्र बोस, आजाद, भगतसिंह के देश की राजनीति सिर्फ अविश्वास या उपहास का केंद्र क्यों बन गई है । महात्मा गांधी ने अपने राजनैतिक-सामाजिक आंदोलन में जिस ‘अंतिम व्यक्ति’ को अपनी चिंताओं के केंद्र में रखा वह उनकी ही परंपरा के वाहकों की चिंताओं में हाशिए पर कैसा चला गया ? सपनों के टूटने का यह सिलसिला हर मोर्चे पर दिखता है। यह ‘असंतुष्ट’ जो अब ‘निराशा’ का रूप ले रही है, देश के लोकत्रंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अब सवाल यह उठता है कि आजाद भारत के नवनिर्माण के जो लक्ष्य घोषित किए गए थे, वे ही अव्यवहारिक और असंभव थे अथवा उन्हें साकार करने के तरीकों-उपादनों में कोई गड़बड़ी हुई। जाहिर है आजादी के बाद हुए देश के अप्राकृतिक बंटवारे ने इस लक्ष्य एवं दिशा को भटकाया ही। साथ ही प्रथम पंक्ति के नेताओं के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एजेंडों एवं पहचानों में अंतर्विरोध ने हालात बदतर किए । आजादी की लड़ाई-सिर्फ एक लक्ष्य पर केंद्रित थी। किंतु आजादी के बाद समूचे देश के नेतृत्व की देश के निर्माण के बारे में सोच एक नहीं थी। सो आजादी की लड़ाई साथ लड़े नेता भी अपने-अपने अंर्विरोधों को लेकर मुख्याधारा की राजनीति में स्वयं को समाहित न कर सके। इसके चलते क्षेत्रीय, धार्मिक, उग्रवाद को खाद-पानी मिला तो अवसरवादी राजनीतिक अपसंस्कृति की भी शुरुआत हुई। इस राजनीतिक पथभ्रष्टता ने 50 सालों में सामूहिकता के आधार पर विकास की कल्पना को खारिज कर दिया और व्यक्तिपूजा की परंपरा को बल मिला। इसका असर चौतरफा दिखा न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका ही नहीं देश के बौद्धिक वर्गों के प्रति भी सामान्य आदमी का भरोसा उठ गया। यह अकारण नहीं है कि हमारी इस व्यवस्था से ही स्थान-स्थान पर जातीय आंदोलन और नक्सली आंदोलन की शक्ल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को चुनौती देने वाली शक्तियां खड़ी हो गई हैं। पहले सामाजिक आंदोलनों से उपजे मूल्यों एवं नेतृत्व को राजनीति सिर-माथे बिठाती थी, अब लोक मूल्यों को सत्ता द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है । बिना अराजक आंदोलन और तोड़फोड़ के इस पूरे तंत्र में आपकी में आपकी कोई आवाज नहीं सुनी जाती। सत्ता के इस बदले संस्कार का और उसकी मूल्यों की राजनीति से दूरी का ही परिणाम ही है कि देश में हुए विकास के तमाम काम हमारी राजनीतिक पतनशीलता के आगे बौने लगते हैं। बाजारवादी व्यवस्था में प्रवेश के बाद वैसे भी आजादी के मूल्यों को अप्रासंगिक करार देने की कोशिशों पर जोर है। नरसिहराव-मनमोहन सिंह की सरकार ने जो ‘खिड़कियां खोलकर’ उदारीकरण के ‘झोंके’ को भारत में आमंत्रित किया था, स्वदेशी के नारेबाजी में आस्था रखनेवाली अटबिहारी वाजपेयी की सरकार ने अब विनिवेश के लिए दरवाजे भी ‘उखाड़’ दिए हैं और उदारीकरण की ‘आंधी’ को आमंत्रित करने में उनकी सारी सरकार जुटी है। जाहिर है इस वयवस्था ने आजादी के आंदोलन की समतावादी मान्यताओं के देशी-विदेशी पूंजीवादीयों, के हाथों गिरवी रख दिया है। हमारी राजनीतिक संस्कृति पर पहले कालाधन, अपराधीकरण और मूल्यहीनता सवार थी अब बाजार और विदेशी संस्कृति का भोंडा नशा भी सवार है। ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम आदमी के लिए ‘स्पेस’ घट रहा है । तो इससे उपजी निराशा को एक सामान्य प्रक्रिया माना जा सकता । लेकिन इससे उपजने वाली प्रतिक्रिया काफी खतरनाक होगी। देश के जन मन में निराशा के बादल हों, उसकी आत्मा मर चुकी हो तो वह मंडी का खरीददार तो बन सकता है, नियंता कभी नहीं बन सकता । इस सबके बाद भी हमारे देश का इतिहास इस बात का गवाह है कि हर संकटों से निकलकर हमने अपना रास्ता बनाया है। राजनीति की दुरंगे चाल के बावजूद जनता इस अनास्था और अविश्वास के बादलों को चीरकर कोई रास्ता निकालेगी। सारे बाजारवादी मूल्यों को दंडवात करने के बावजूद इस देश का जन-मन गांधी की शुचिता और सादगी, गोखले के उदारवादी सुधारवाद, लाल-बाल-पाल की निर्भीक क्रांतिकारिता के मूल्यों के आधार पर नए भारत का सृजन करेगा। लोगों में देश के प्रति ममता और सम्मान भरपूर है। वास्तविक विकल्प और नायक के मिलते ही बदलाव व परिवर्तन का जज्बा रंग लाएगा। निराशा और अवसाद का यह संक्रमण काल जितने जल्दी विदा होगा, देश के लिए वह क्षण सौभाग्याशाली होगा।
(15 अगस्त, 2000)
000
No comments:
Post a Comment