जिद को जिंदा रखने का जुनून


हां, टीवी स्क्रीन पर परमहंस रामचंद्र दास ही थे, वे बता रहे थे कि अयोध्या में मंदिर निर्माण को प्रधानमंत्री ने हरी झंडी दिखा दी है। फिर उन्होंने अपनी ओर से जोड़ा- ‘वैसे भी यह मामला अदालत का नहीं - आस्था का है।’ परमहंस रामचंद्र दास अयोध्या के दिगंबर अखाड़े के प्रधान और राममंदिर आंदोलन के प्रमुख नेता हैं। वे प्रधानमंत्री की शान में कसीदे कस रहे थे और कह रहे थे ‘मंदिर के लिए पद-कुर्सी सब वाजपेयी जी छोड़ सकते हैं’।

चैनल पर बाबा परमहंस के ये विचार जनता का मनोरंजन कर ही रहे थे कि इसके पूर्व प्रधानमंत्री जी लोकसभा में ‘अदालत का आदेश मानने’ की बात करके घुटने टेक चुके थे । जाहिर ये बातें संघ परिवार के लिए न नयी हैं, न अनहोनी । वे हर दोहरी बात, द्वैध आचरण को अपनी ‘रणनीति’ बताकर आत्ममुग्ध रहने वाले लोक के प्राणी हैं। इसीलिए वाजपेयी का एक बयान उनका दिल जीत लेता है और वे ‘बल्ले-बल्ले’ होकर कुंभ में रणभेरी बजाने की तैयरियों में जुट जाते हैं। कुंभ में धर्मसंसद और उसमें ‘संतों में आदेश’ से मंदिर निर्माण की तिथि घोषित करना इतिहास को लगभग 1990-92 के उन्हीं खूरेजी सालों में लौटाने की कोशिश है, जब हिंदुस्तानी आवाम सांप्रदायिकता की तपिश को महसूस कर रहा था-जिसका फल कई शहरों में हुए दंगों और ‘इतिहास का कलंक’ एक मस्जिद को ध्वस्त करने के रूप में सामने आया था । 6 दिसंबर 1992 की यह घटना आज भी भारतीय शासन के साथ घोखाधड़ी की एक जीवंत मिशाल है-जिसकी जिम्मेवारी ‘शौर्य दिवस’ मनाने वाले रणबांकुरे भी लेने को तैयार नहीं हैं। तब से 6 दिसम्बर को उन्हीं बातों को कुरेदने और खोदने की कोशिशें राजनीतिक दलों में होड़ का विषय बन गई हैं। संसद से लेकर सड़क तक यह अनुष्ठान किसी प्रायश्चित या पापबोध का पर्व नहीं-हुंकारों और ललकारों का दिन बन जाता है। जाहिर है ये बातें इस सवाल के समाधान में रत्ती भर भी सहयोगी नहीं बनतीं। इससे सिर्फ सद्भाव को बिगाड़ने की बचकानी हरकतों की बू आती है, यह अलग बात है कि लोग अब इस सवाल में रस नही लेते न ही नेताओं के बहकावे में आकर सड़कों पर उतरते हैं। लेकिन राजनीतिकों की सारी कोशिश यही होती है-कैसे इस सवाल पर एक उद्वेलन पैदा कर एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा किया जाए। यह अकारण नहीं था कि जब प्रधानमंत्री वाजपेयी ने संसद में यह कहा कि अदालत और बातचीत के साथ समाधान के अलावा कोई और रास्ता हो तो बताया जाए-तो विपक्ष मूक खड़ा था।

जाहिर तौर पर अयोध्या विवाद आज लोगों की प्राथमिकता नहीं है, लेकिन राजनेताओं को आज भी यह मुद्दा बेहद प्रिय है। इसे जिंदा रखने वाला एक पूरा तंत्र मौजूद है, जो इसे हर 6 दिसंबर पर ऑक्सीजन देकर खड़ा कर देता है। असल में यह मामला अब राजनीतिक नौटंकी और प्रहसन से ज्यादा नहीं रह गया है। भावनाओं को भड़काने की होड़ यहां साफ दीखती है। यह बात राजनेता भी जानते हैं कि इस मामले का भूमि संबंधी विवाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चल रहा है-वही इस सवाल को सुलझा सकता है। कानूनी प्रक्रिया की धीमी गति का विषय अपनी जगह है किंतु वह (न्यायपालिका) इस मामले को सुलझाएगी, यह भरोसा रखना चाहिए। अयोध्या मामले पर ‘न्याय’ का इंतजार किए बिना अपनी ‘जिद’ को ‘जिंदा’ रखने का ‘जुनून’अंततः हमारे लोकतंत्र एवं सामाजिक जीवनधारा पर बहुत विपरीत प्रभाव डालेगा। लेकिन सांप्रदायिकता की राजनीति एवं इन मुद्दों को भड़काकर राजनीतिक लाभ उठाने का शौक शायद ही राजनेताओं का साथ छोड़े। इस मामले में राजनीतिक दल यदि अपने आग्रहों से ऊपर उठकर किसी सर्वसम्मत समाधान की ओर बढ़े और रास्ता निकालने का प्रयास करें तो बात बन सकती है। किंतु कोई भी समाधान का ‘लाभ’ किसी एक दल के खाते में नहीं जाने देना चाहता-यही इस ‘अयोध्या कांड’ का सबसे त्रासद पहलू है।

(24 दिसंबर, 2000)
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