काजल की कोठरी से बेदाग लौटें कैसे ?


राजनीति में टूट-फूट-गुटबाजी और नए दलों का बनना बिगड़ना कोई नई या अनहोनी घटनाएं नहीं हैं। आजादी के बाद जैसे-जैसे हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो रहा है स्थानीय, क्षेत्रीय आकांक्षाओं का नए-नए दलों के रूप में उभार हो रहा है। ये बातें मुख्यधारा की राजनीति में अब रुटीन-सी हो गई हैं, लेकिन दलित राजनीति के संदर्भ में इस टूट-फूट को कुछ ज्यादा ही महिमामंडित कर प्रचारित किया जाता है, जैसे वह कोई अनहोनी हो। यूं लगता है जैसे’मीडिया’ अचानक दलित राजनीति के इस बिखराव से बहुत पीड़ित हो और ऐसा होना कोई बड़ी सामाजिक क्षति हो। महाराष्ट्र में आरपीआई हो या उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी इन दलों के बिखराव या छोटे-मोटे विभाजनों पर जैसा ‘स्यापा’ और हाहाकार दीखता है वह आश्चर्यचित करता है। दरअसल यह दर्द किसी शुभचिंतन या शुभेच्छा से नहीं दलित राजनीति को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशों के चलते ही उपजता है। छोटी-मोटी टूट-फूट को भी इन कदर प्रचार का बाजार हासिल हो जाता है कि उनकी किसी बड़ी पहल, सफलता या या आंदोलन को भी वह प्रचार नहीं मिल पाता । जाहिर है यह प्रचार सिर्फ दलित आंदोलन को कटघरे में घड़ा करने, उसके नेताओं के बिकाऊ साबित करने की कोशिश होता है। अक्सर यह सारा मामला प्रायोजित भी होता है, फिर ‘मीडिया’ में बैठे कुछ ‘खास मानसिकता’ के तत्व इसे सिंदूर पोतते रहते हैं।

दलित आंदोलन से जुड़ी पार्टियों के वैचारिक भटकाव, उनकी दिशाहीनता या नेतृत्व का संकट अकेला इस धारा का संकट नहीं है। मुख्य धारा के सभी राजनीतिक दल लगभग इन्हीं संकटों से जूझ रहे हैं। ऐसे में दलित राजनीति के सामने उपस्थित प्रश्नों को पूरे राजनीतिक परिवेश से अलग करके देखना बेमानी है। दूसरे दलित राजनीति अपनी अपार जनशक्ति के बावजूद किसी सर्वमान्य नेतृत्व एवं संसाधनों के संकट से लगातार जुझती रही है। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर के बाद उसे आज भी एक ‘नायक’ का इंतजार है, जो सही अर्थों में उसकी वांछित इच्छाओं को वैचारिक-संकठनात्मक दोनों स्तरों पर अमली जामा पहना सके। राजनीति के रोजमर्रा कर्म में बढ़ आए खर्चों, चुनाव एवं संगठन चलाने के लगने वाले संसाधनों की जरूरत शायद ऐसे बड़े कारण हैं, जो दलित राजनीति की आत्मनिर्भरता में बड़े बाधक हैं। मुख्याधारा के दल एवं राजनेता इसी ‘कमी’ का उपयोग ‘अवसर’ के रूप में करते आए हैं। दलित राजनीति की भटकन एवं विचलन का मातम करने से पहले अगर हम पूरे चित्र को समझने की कोशिश करें तो यर्थाथ की पथरीनी जमीन हमारी आंखें खोल देगी। आज महाराष्ट्र की दलित पार्टियां अगर कई हिस्सों में बंटी हैं तो इसका कारण जाहिर तौर पर नेताओं की महत्वाकांक्षाएं एवं मुख्यधारा के राजनीतिक दलों द्वारा उनका लगातार इस्तेमाल करने के लिए फेंका गया ‘चारा’ है। इसके बावजूद विचारधारात्मक आग्रहों को लेकर दलित आंदोलन में एक ताप और आंच हुई है। सत्ता के लिए समझौतों को उसके सीमित अर्थ में ही देखा जाना चाहिए। राजनीति तंत्र में जिस प्रकार की सड़ांध फैली है-इसमें किसी राजनेता से इसलिए यह अपेक्षा करना कि वह ‘दलित’ है इसलिए ‘पवित्र गाय’ बना रहे सोचना नाजायज है। राजनीति के मंच पर अपनी प्रासंगिकता बचाए और बनाए रखने के लिए मुख्कधारा के दल जो नौटंकियां और भड़ैंती कर रहे हैं उसी के लिए वे किसी और पर उंगली नहीं उठा सकते।

जहां तक टूट-फूट की बात है कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट, समाजवादी सब इस हमाम में नंगे हैं। अनुशासन की प्रतीक भाजपा शायद ही बलराज मधोक, शंकरसिंह वाघेला, कल्याण सिंह, आरिफ बेग, इंदरसिंह नामधारी, शमशेर सिंह जैसे नेताओं को भूल सके । जनता दल के प्रमुख नेताओं को भी शायद यह याद कर पाने में दिक्कत हो कि पार्टी कितनी बार टूटी । कांग्रेस भी बड़े विभाजनों का शिकार हुई है। इसके अलावा एकाध नेताओं का आना-जाना सामान्य सी बातें हैं। विचारधारा का सवाल पूरे राजनीतिक परिदृश्य से बेमानी साबित हो चुका हैं। विचारधारा का सवाल पूरे राजनीतिक परिदृश्य से बेमानी साबित हो चुका है। ‘क्या कहना और क्या करना’ इसकी मर्यादाएं अब कौन याद करता है ? ऐसे में दलित राजनीति से शुचिता और पवित्रता की अपेक्षाएं कहां तक जायज हैं ? इस वातावरण में भी जिस हद तक विचार के प्रति, अपने समुदाय के प्रति उत्तरदायित्व की, अपने मार्गदर्शक (बाबासाहेब आंबेडकर) के प्रति, श्रद्धा का सवाल है दलित आंदोलन ने ईमानदारी निभाई है। अपने फैसलों पर डटे रहने और लड़ने की क्षमता के चलते ही ‘दलित प्रश्न’ अब राजनीतिकी मुख्यधारा का प्रश्न बन चुका है। इस सवालों से टकराने और उनकी उपेक्षा करने का साहस किसी में नहीं है। दलित समाज में एक आत्मसम्मान, आत्मगौरव का बोध भी पैदा हुआ है, वे तमाम जातियों-उपजातियों में बंटे होने के बावजूद एक समग्रता बोधक शब्द ‘दलित’ के रूप में नई पहचान एवं एकता के साथ खड़े हैं। यह दलित आंदोलन की ही उपलब्धि है कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के रूप में आज बंगारू लक्ष्मण विद्यमान हैं। आरपीआई, बसपा जैसे दल कुछ खास न कर पाएं किंतु इस आग और आंच को जलाए रखने में सफल जरूर हैं।

मुख्यधारा की राजनीति एवं हमारी संसदीय राजनीति की तमाम विकृतियों ने सचमुच राजनीति के मंच को खासा गंदला किया है। ऐसे में गंदगी की कालिख के छींटे अगर आरपीआई या बसपा नेताओं के ऊपर भी हैं और वे भी इन बुराईयों से मुक्त नहीं हैं तो ‘स्यापा’ करने की जरूरत नहीं है। ‘विचार’ के प्रति घटती आस्था के ये प्रतिफलन हैं। आखिर राजनीति जैसी ‘काजल की कोठरी’ में पाक-साफ रह पाना कितना कठिन है यह बताना इतना नहीं है, पर इसे समझाना शायद बहुत सरल है।

(7 जनवरी, 2001)
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