हमेशा चिंता के केंद्र से बाहर रहे हैं किसान


उदारीकरण को गाली देना, कोसना हमारी आदत सी बन गयी है। आज हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव आया है और परिवर्तन की प्रक्रिया में जाहिर है बाजार का रूप भी बदला है। उदारीकरण के दौर के पूर्व भी अपने गांधीवादी-समाजवादी सोच के बावजूद भी हमारी चिंताओं के क्षेत्र में कभी किसान नहीं रहे । किसानों की बहुआवादी के बावजूद सिर्फ नारों एवं राजनीतिक चुहुलबाजियों में उनका इस्तेमाल होता आया है । जब भी राजनेताओं पर संकट आता है, वे अपने ‘किसान समर्थक’ होने की दुहाई देने लगते हैं । आज बाजारीकरण की खामियों और कुप्रभावों की चर्चा करने के साथ हमें यह देखना भी जरूरी है कि 1947 से देश की आजादी के बाद आब तक के दौर में हमने कृषि क्षेत्र का कौन सा कल्याण कर दिया ।

भारतीय राजनीति ने आजादी के 5 दशकों में वस्तुतः किसानों के साथ सर्वाधिक छल किया है । किसान देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थितियों को प्रभावित करने की स्थिति में हैं, इसके बावजूद नीतियों एवं कार्यक्रमों के निर्धारण के समय इन्हें हाशिए पर रखा जाता है। हमारे नीति नियंताओं ने सस्ती नारेबाजियों का इस्तेमाल कर किसानों का राजनीतिक उपयोग तो किया पर कृषि के विकास एवं संवर्धन के सवाल पर वे हमेशा पश्चिमी दृष्टि से विचार करते रहे।

विचारक जितेंद्र बजाज की माने तो “अंग्रेजी राज कायम होने से पहले भारत में कृषि यहां के लोगों के जीवन का एक अंग थी। उनकी जीवन शैली थी। उनके लिए खेती एक आर्थिक गतिविधि भर नहीं थी । वह भारत के स्वाधीन गांवों में लोगों की बुनियादी प्रवृत्ति थी। वह लोगों की सारी जरूरतें पूरी करती थी” । हम देखें तो इस चिंतन को आजादी के बाद सरकारी तौर पर बदलने का प्रयास किया गया। जहां आजादी के पूर्व हमारी खेती का मूल उद्देश्य जीवन को समृद्ध करना था, वहीं आजादी के बाद वह सरकार की, बाजार की उद्योगों की जरूरतें पूरी करने वाली बन गई। पारंपरिक खेती जहां प्रकृति के जैविक तत्वों से भरी स्वायत एवं गांव को सुदृढ़ बनाने वाली थी, वहीं उसने स्थानीय स्तर पर बनने सारी योजनाओं से किसानों की जिंदगी को और बेहतर बनाया। देश में अंग्रेजी के आगमन के साथ ही भारतीय खेती प्रबंध पर सबसे पहला हमला कर (टैक्स) लगाकर किया गया। कर चुकाने की मानसिकता ने खेती और आदमी के रिश्तें काफी हद तक बदल दिए। इससे न सिर्फ किसानों के कष्ट बढ़े, वरन खेती पर आश्रित हमारी समाज रचना भी आहत हुई। सच कहें तो हमारी कृषि परम्परा इतनी समृद्ध थी कि 1893 में इंग्लैंड के कंसल्टिंग केमिस्ट डॉ. जान आगस्टस वालकर ने कहा था कि भारत में खेती आमतौर पर बहुत उत्तम है। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को दी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि रासायनिक खाद भारत की मिट्टी के लिए उपयोगी नहीं है। जो वैज्ञानिक तरीके भारत की खेती के काम में लाए जा रहे हैं वे यहां के अनुकूल नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि लकड़ी के हल भारतीय परिस्थिति के लिए उपयोगी हैं, भारी लोहे के हल ठीक नहीं। वालकर की रिपोर्ट के तमाम सुझावों के बावजूद अंग्रेजी ने उसका उल्टा ही किया। वालकर की एक-एक सिफारिशों के उलट कार्यक्रम बनाए गए। इसके चलते भारतीय खेती का चेहरा ही बदल गया। भारतीय किसानों से नए प्रलोभनों एवं दबावो में ऐसे प्रयोग कराए गए, जिससे तत्काल उत्पादन तो बढ़ा किंतु दूरगामी परिणामों की चिंता न की गई । अंग्रेजी ने 1905 में रायल एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट की स्थापना पूसा में की। वस्तुतः इसका उद्देश्य अंग्रेजी के घोड़ों के लिए हरे चारे का संवर्धन करना था। बाद में 1930 में आए भूकंप के बाद यह संस्थान दिल्ली में आ गया । आजादी के बाद किसानों से बड़े-बड़े वायदे तो किए गए पर उनके अमल की प्रक्रिया एवं सोच पूरी तरह विदेशी थी, जिसकी ग्राहयता आम किसानों के लिए असंभव सी थी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1948 में ‘खेती’ नाम की एक पत्रिका शुरू की। आरंभ के इस प्रयास का अर्थ था-अनाज की पैदावार को बढ़ाना । तत्कालीन चुनौतियों के मद्देनजर यह लक्ष्य ठीक भी था, पर इसके बीच कृषि की मौलिक भारतीय सोच को विकसित करने एवं किसानों तक उसका संदेश पहुंचाने के प्रयास नहीं हुए । बीएससी (कृषि) की पढ़ाई में 35 से ऊपर विषय डाल दिए गए। जिससे समग्र दृष्टि का विकास असंभव सा हो जाता है। पढ़ाई एवं शोध के स्तर पर कृषि सिर्फ विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। पर ये विश्वाविद्यालय भी आम किसानों से संवाद कर सकने की भाषा एवं तकनीक का विकास न कर पाए।

इसके अलावा देश के 81 संस्थानों में फसलों पर शोध कार्यों के चलने के बावजूद किसानों को उनका अंशतः लाभ भी नहीं पहुंचा पाता। उनके उधार लिए गए पश्चिमी चिंतन एवं संवाद की पश्चिमी भाषा एवं शब्दावली इसमें बहुत बाधक है। हालांकि इस संदर्भ में पंतनगर कृषि विश्वाविद्यालय ने कई गंभीर प्रयास करके हिंदी में काफी साहित्य एवं शब्दावली विकसित करने का काम किया । देश के कई विश्वविद्यालयों से अपनी कृषि पत्रिकाएं शुरू हुई जो प्रायः उन्हें लिखने एवं छापने वालों तक ही सीमित रहीं।

हमारे वैज्ञानिक अब फिर नई एवं पारंपरिक खेती की पद्धिति के बीच तालमेल बिठाकर नई संभावनाएं तलाशने में जुटे हैं। वस्तुतः देखें तो पश्चिमी पद्धति पर आधारित इस खेती की असलियत अब खुल गई है। 40 सालों तक रसायनों एवं केमिकलों से हमारे खेतों को बरबाद करने के बाद हमें क्या मिला ? वस्तुतः इस सबका सच्चा लाभ मिला है तो वह उठाया है फर्टिलाइजर एवं बीज कंपनियों ने। इन सालों में हुए शोध का भी व्यवसायिक लोगों ने खूब लाब उठाया । पर इन सबकी असफलताओं से नीति निर्माता हड़बड़ी में हैं। वर्ल्ड बैंक की सहायता से 50 सालों के कर्मों पर पानी फेरने का प्रयास चल रहा है। कृषि को बचाने की अचानक जगी चिंताओं में अब हर जिले में ‘कृषि विज्ञान केंद्र’ खोले जा रहे हैं, जहां वैज्ञानिक एवं किसान मिलकर समस्याएं सुलझाएगे। स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी डोरे डाले जा रहे हैं कि व कृषि के नाम पर कुछ करें । अच्छे किसानों को ‘कृषि पंडित’ के रूप में सम्मानित किया गया। पर वैज्ञानिक का कहना है कि रसायनों से मिट्टी इतनी बदल गई कि तत्काल पारंपरिक खेती को लागू नहीं किया जा सकता। इस सोच के चलते कृषि वैज्ञानिक चौराहे पर हैं । समस्या के समाधान के लिए उनकी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे किसानों को अपढ़ एवं मूर्ख समझने वाली ‘अंगरेजी दां बिरादरी’ अब हतप्रभ है। उन्हें अपना अतीत याद आ रहा है। चिंताएं इतनी व्यापक हैं कि अब कहा जाने लगा कि पहले मौसम से अकाल आता था अब बिना मौसम अकाल आएंगे । इस संबंध में हमारी कथित वैज्ञानिक सोच ने बहुत कबाड़ा किया है। इसके चलते मिट्टी के नीचे के तत्वों का क्षरण हो गया है। वे निष्क्रिय होते जा रहे हैं। आज हमने पुनः उसे सक्रिय करने के बारे में सोचना आरंभ कर दिया है और इसी के चलते देशी खाद के प्रयोग की चर्चाएं चल पड़ी हैं। प्रकृति के चक्र को उल्टा घुमाने का नतीजा हमारे सामने है।इसी के चलते हम केंचुए के बारे में भी सोच रहे हैं। ऊपर से पड़े केमिकलों के चलते जब हमारे सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो गए तो आज विदेशों से केंचुए के आयात की बात चल रही है। इस नई वैश्विक बाजार व्यवस्था ने बहुत घपले खड़े किए हैं । हर जगह वह बाजार के रास्ते तलाश ही लेती । 10-15 साल पूर्व गोबर की खाद को हेय समझा जाता था, पर अब जब दुनिया में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी तो हमें भी वह मह्त्वपूर्ण प्रतीत हो रही है। सच कहें तो यहां भी इस सबका एक कारण मजबूरियां भी हैं। रसायनों एवं केमिकलों की मूल्यवृद्धि के चलते सरकार मांग के बराबर आपूर्ति में सफल नहीं हो सकती तो उसके मन में अपनी पारंपरिक खेती का उत्साह जगा है। कृषि के क्षेत्र में रिकार्ड उत्पादन की तो वाहवाही हो रही है, पर यह ध्यान नहीं है कि ये उत्पादन विकसित इलाकों तक ही सीमित हैं और इसा लाभ चंद बड़े किसानों को ही मिल पाता है। अब जोर सिर्फ नकदी फसलों पर है, जिन्हें निर्यात किया जा सके । नई सोच है कि आवश्यकतानुसार खाद्यान्न आयात भी किया जाए । निश्चित ही इससे जरूरतें तो प्रभावित होंगी ही और भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी बढ़ेगी । चीनी घोटाला इसका एक उदाहरण था । सच तो यह है कि सरकारी नीतियों की दिशा एवं आर्थिक विकास के ढरें में हमारे किसानों की कोई जगह नहीं है। जबकि हमारे किसानों की मेहनत एवं अच्छे मौसम के कारण देश में पिछले 7सालों से लगातार कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई है। पहले अच्छे फसल के बाद भी लगभग विनाश की स्थिति दिख रही है। वैसे भी डंकल प्रस्तावों को स्वीकार कर हमने अपने गणतंत्र का मजाक बना दिया है। डंकल प्रस्ताव सरकार को निर्देश देते हैं कि वह अपने कृषि क्षेत्र को उनके अनुसार नियंत्रित करे। ऐसे में किसानों के हित एवं विकास की नारेबाजी बेमानी हो जाती है। किसानों को सरकार न ऐसे मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां से आगे जाना भी खतरनाक है और पीछे लौटना भी बुरा है। क्योंकि हमारे दिशावाहकों ने हमें जहां पहुंचाया है वहां से पीछे लौटना भी मना है।

(31 दिसंबर, 2000)
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