भोगी तो सत्ता बनाती है वरना हर कोई त्यागी है

तहलका मामले ने एक बार पिर भ्रष्टाचार को सार्वजनिक बहस का मुद्दा बना दिया है। संसद ठप है, मैदानों में रैलियां हो रही हैं।सारा जोर अब एक-दूसरे पर कीचड़ उठालने पर है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मामला जरा ‘मजेदार’ है। शुचिता और पवित्रता की राजनीति की वाहक होने की दावेदार भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और एक जंगजू समाजवादी नेता इस लपेट में हैं। इनसे खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी जंग की अगुवाई कांग्रेस, लालू प्रसाद यादव व मुलायम सिंह के हाथ में है।

सच दृष्य बड़ा रोचक है, लेकिन ये संवाद को तैयार नहीं हैं। बिना सहस सरकार सत्ता छोड़ दे तो ठीक वरना बहस में न जाने कौन जीते। संवाद ‘आईना’ भी दिखा सकता है, जिसमें दोनों पक्ष ‘गटर’ में लौटते दिखें । रोचक यह भी कि जो लाग संसद में चर्चा को तैयार नहीं व टीवी चैनलों के चैट शो में तलवारे भांज रहे हैं। रैलियां कर रहे हैं, भाषण झाड़ रहे हैं। आरोपों से लदी भाजपा व उसकी सहयोगियों की जमात भी जवा भी रैलियां कर रही है, जिसका संदेश साफ है- ‘कांग्रेस हमसे ज्यादा भ्रष्ट है’ देश की राजनीति ने वास्तव में आजादी के बाद पहली बार ऐसा दौर देखा है, जब ‘हमाम में सब नंगे’ का मुहावरा हमारी राजनीतिक पार्टियों पर जीवंत हो उठा है।

हालांकि प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी के लिए यह क्षण शायद त्रासद हो कि उनके लिए संसद में ‘चोर’ जैसे नारे हमारे सांसद ने लगाए। इसमें किसी पक्ष को गलत नहीं ठहराया जा सकता। साफ है हमारे प्रधानमंत्री के राज में अतनी धमाल मची हो तो उन्हें दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। व्यवस्था में छिद्र न होते तो ये हालात पैदा क्यों होते, लेकिन आनंद का विषय यह है कि कैसे-कैसे लोग अपने पुराने अतीत को भूल कर लड़ाई पर निकल पड़ते हैं साथ ही जिन हथियारों से वे लड़ाई लड़ रहे हैं, क्यावे पवित्र हैं ? महात्मा गांधी ने ‘साधन व साध्य’ दोनों की पवित्रता की बात नाहक नहीं कही थी, लेकिन देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के बंगलूर अधिवेशन में जहां श्रीमती सोनिया गांधी भ्रष्ट, घूसखोर व देशद्रोही सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रही थीं। वहां उनके सबसे निकट पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव बैठे थे, जो इन दोनों कांग्रेस अध्यक्ष के नए सलाहकार बनकर उभरे हैं । बताने की जरूरत नहीं वे न सिर्फ भ्रष्टाचार के कई मामलों का सामना कर रहे हैं वरन उनके एक मंत्री के आवास से 3 करोड़ रुपए यूं ही बरामद हुए थे। आप फूले न होंगे तो हर्षद मेंहता के ‘सूटकेट’ की कथाएं भी इन्हीं के दौर की बातें है, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष उन्हें मंच से दूर न कर सकीं । इसके विपरीत बना तारीफ किए यह संदर्भ जोड़ना आवश्यक है कि भाजपा ने अपने पूर्व अध्यक्ष को दिल्ली में हुई अपनी राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की बैठक में नहीं आने दिया और कुछ समय चुप रहने को कहा। स्वयं सोनिया गांधी के मित्र आक्टिवियो क्वात्रीची अभी भी देश के सबसे बड़े रक्षा घोटाले में आरोपी हैं तथा अपने प्रत्यर्पण के खिलाफ लड़ाई रहे हैं। जाहिर है ऐसी पृष्ठभूमि और अतीत को लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग की बातें भरोसा नहीं जगातीं। यह सिर्फ इतना ही है कि अब आप कह सकते हैं कि ‘कांग्रेस अकेली भ्रष्ट नहीं हैं।’ निश्चय ही यह हमारे राजनीतिक तंत्र के सड़ जाने का संकेत है। इसलिए इस मामले में भी रास्ते निकालने व सफाई करने की इच्छाशक्ति दर्शाने के बजाए राजनीतिक लाभ उठाने पर जोर है। इस पूरे मामले से आज भी हमारे राजनेता कोई सबक लेने को तैयार नहीं हैं। उन्हें सब पता है कि वे शीशे के घरों में रहते हैं, लेकिन देश के आम लोग बेचैन हैं। भ्रष्टाचार का सवाल उन्हें चोट पहुंचाता है। वे रोजमर्रा की जिंदगी में इसके संताप को सहते हैं। अपने छोटे-छोटे कामों के लिए उन्हें घूसपेठी, कमीशनखोरी का सामना करना पड़ता है। विकास के कार्यों में भ्रष्टाचार का दानव बाधा पहुंचता है।

लोग इसीलिए बेचैन हैं, उन्हें प्रधानमंत्री वाजपेयी से उम्मीदें थीं कि व इस सड़ रहे तंत्र को कुछ तो साफ करने का, जीवंत बनाने का प्रयास करेंगे । तहलका टेपों ने प्रधानमंत्री की आंखें खोल दी हैं, लेकिन क्या वे भ्रष्टाचार के इस लौहतंत्र से टकराने का साहस कर पाएगा ? अपने आसपास कार्यरत लोगों पर उठती उंगलियों का सामना कर पाएंगे ? लोगों को यह सवाल मथ रहा है। प्रधानमंत्री की आयु एवं राजनीतिक निर्भरता, चुनाव खर्च ऐसे परिवर्तन की अनुमति नहीं देतीं। काले धन पर राजनीति की निर्भरता, चुनाव खर्च ऐसे प्रश्न हैं-जिन पर साफ-साफ बात शुरू होनी चाहिए । ‘आदर्श’ के नाम पर ‘भ्रष्टाचार’ की स्थापना होते एवं मूर्तियों को टूटने का तमाशा हम बहुत देख चुके । ‘भ्रष्टाचार व घूसखोरी’ के दर्दा से नाराज विपक्षी पार्टियों को भी ठंडे दिमाग से इस सवाल पर सोचना चाहिए कि आखिर यह लड़ाई कैसे लड़ी जा सकती है। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का खेल ठाक है, पर यह इस तंत्र की सड़ाध रोकने का उपाय नहीं है। समस्या बहुत गंभीर है, हुड़दंग और संसद में हंगामें इसका विकल्प नहीं है। ‘दिल्ली’ की पहचान को बदलने के लिए अब बातचीत करने का सही समय यही है। समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘भोगी तो सत्ता बनाती है वरना हर कोई त्यागी है।’ तहलका के ताजा प्रसंग में उनकी यह बात बहुत स्वभाविक और मार्मिक लगती है।

(1 अप्रैल, 2001)
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