इस भस्मासुर से कौन लडेगा ?


विश्वव्यापी आतंकवाद इतने रूप धरकर हमारे सामने है कि उसकी ‘लीला’ को समझ पाना अब कठिन है। दुनिया के तमाम देश आतंकवाद के विविध रूपों से दहशतजदा हैं। आतंकवाद-नशा व हथियार के व्यापारियों द्वारा प्रायोजित है तो स्थानीय क्षेत्रीय अस्मिताओं को लेकर भी । धर्म के जुनून पर झूमता आतंकवाद है तो जाति जहर की खाद पर पोषित आतंकवादी अमरबेलें भी हैं। शासन के अनाचार, समाज के विभेदवादी चरित्र के विद्रोह से उपजा आतंक है तो स्वयं की मुक्ति की चेतना भी कभी आतंकवाद का कारण बन जाती है।

खुद हमारे देश के संदर्भ में छत्रपति शिवाजी महाराज से लेकर आजादी के सिपाही चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे लोग तत्कालीन राजसत्ता की नजर में बागी और आतंकी ही थे। लेकिन समय ने उन्हें सही साबित किया और वही इज्जत बख्शी जो एक देश अपने बहादुर बेटे और जांबाज सिपाही को देता है। छत्रपति शिवाजी ने छापामार शैली से ही दिल्ली की राजसत्ता को चुनौती देते हुए ऐसी राज्य व्यवस्था खड़ी की जो श्रेष्ठ और स्वच्छ शासन पद्धति का पर्याप्त बन गी। लेकिन यह मुक्ति की चेतनाएं आरंभ में राजसत्ता द्वारा ‘आतंकी’ ही मानी गीं। अक्सर ऐसा नहीं होता । हर आतंकवाद क्रांति की बात तो करते है, अपने लक्ष्य भी पवित्र बताता है, लेकिन उसकी दिशा और रास्ता उसे आदरणीय नही बनाता । कश्मिर से लेकर पूर्वाचल के राज्यों तक राज्य सत्ता को चुनौती दे रही बंदूक और उन्हें थामें नौजवान किसी न किसी रूप में अपने आतंकवाद को सैद्धांतिक जामा पहनाते नजर आते हैं। इन्हीं में आगे चलकर उन नक्सली बंदूकधारियों का भी नाम जोड़ा जा सकता है, जो आम आदमी को न्याय दिलाने के नारे के साथ सत्ता से टकरा रहे हैं। इस लोगों को कहीं-कहीं अपेक्षित जनसमर्थन भी मिल जाता है। जाहिर है आतंकवाद को यह समर्थन उसके विस्तार में सहायक होता है। विहार की जातीय सेनाएं इसी प्रकार के आतंकवाद व उसे मिले जनसमर्थन को बुते जिंदा हैं। व्यवस्था के छिद्र एवं राजनीतिक मजबूरियां इस प्रकार की ताकतों को हवा-पानी दिती हैं। समस्याओं के जमीनी समाधान के बजाए सारा जोर टकराव बढ़ाने तथा उनका लाभ उठाने पर है। ईमानदार प्रयासों का अभाव हालात को और बिगाड़ता है।

इस सबके बीच सबसे बड़ा खतरा धार्मिक उन्मादियों से है, जो धर्म के नाम पर अपने हर गलत को सही ठहराने के लिए बंदूकों की जंग को जायज ठहराते हैं। यह यात्रा कितनी त्रासद हो सकती है-अफगानिस्तान के तालिबान इसका उदाहरण हैं। वे धर्म के नाम पर ‘बुतों’ से लड़ रहे हैं। प्राचीन प्रतिमाओं को ध्वस्त कर धर्म का राज ला रहे हैं। लादेन अपने विश्वाव्यापी षड्यंत्रों तथा हिंसक अभियान से इस्लाम को दुनिया के नक्शे पर महत्व दिलाना चाहता है। पाक में पल रहे दर्जनों हिंसक संगठन कश्मीर की आजादी के लिए ‘जेहाद’ चला रहे हैं। आखिर इस यात्रा का अंत क्या है्। जहां इस्लाम का राज है वहां विभिन्न मुस्लिम संप्रदाय आपस में टकरा रहे हैं। वे सिया-सुन्नी, कादियानी-गैरकादियानी, पाकिस्तानी-मुजाहिर, पंजाबी -सिंधी जैसी आपसी लड़ाइयां लड़कर अपनी ताकत का ‘जोर’ दिखा रहे हैं। जमीन की लड़ाई कितने रक्तपात करा सकती है इजराइल फिलिपीन्स की अंतहीन जंग इसका उदाहरण है। ऐसे ही भूमि, भाषा, धर्म, क्षेत्र की अनगिनत आकांक्षाओं को उभार कर उनका इस्तेमाल कर जंग के तमाम मोर्चे खेल लिए गए हैं। दुनिया के पैमाने पर आतंकवाद का संजाल नशीले पदार्थों के सौदागरों के जरिए भी फैला है। हथियारों के व्यापारी भी इस आग को तेज करने में अपनी भूमिका निभाते हैं। हर देश में इन लोगों का संगठित एवं सुनियोजित तंत्र कार्य करताहै तथा ऐसी गतिविधियों को अंजाम देता है। किसी देश की युवा शक्ति को भावनात्मक नारों तथा नशे का शिकार बनाकर ये वहशी ताकतें उनके हाथ में हथियार पकड़ा देती हैं। की राष्ट्र भी अनेक कारणों से अपने प्रतिद्वंद्वी देश को प्रभावित करने के लिए षड्यंत्रकारी तत्वों को शरण देते हैं। पड़ोसी पाकिस्तान प्रेरित आईएसआई इसका जीवंत उदाहरण है जो भारत में षड्यंत्रों व आतंकवादी गतिविधियों की मुख्य कर्ताधर्ता है। इसके तार भारत में नशे, हथियार तथा आतंकवाद की गतिविधियां चलाने वाले लगभग हर संगठन से जुड़े हैं। पूर्वांचल के राज्यों में कुछ आतंकवादी संगठनों को चर्च से प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता है। जाहिर है धर्म के नाम पर समाज को तोड़ने और उसकी सामूहिक शक्ति को नष्ट करने के षड्यंत्र यहां हवा पाते हैं। दुनिया के तमाम देश आतंकवाद से प्रभावित होने के बावजूद कोई साजा मुहिम नहीं चला पाते, क्योंकि वे कहीं न कहीं स्वयं इन गतिविधियों को संरक्षण देते हैं। अमरीका दुनिया का दादा जरूर बनता है, लेकिन वह भी एक आंख से दुनिया को नहीं देखता । अपने समर्थक देशों को उसने तमाम मोर्चों पर खुली छूट दी। अरसे तक वह भारत के खिलाफ पाक की मदद करता आया। इजराइल के मामले पर भी उसकी भूमिका को सराहा नहीं गया है। जाहिर है दिनिया के देश विश्वव्यापी आतंकवाद के खिलाफ आज भी एकजुट नहीं हैं इसलिए संयुक्त राष्ट्र के सारे प्रयास बेमानी बनकर रह जाते हैं। भारत में विस्फोट करवाकर दाऊद इसीलिए पाकिस्तान में शरण पा जाता है। लादेन को अफगान के तालिबान सिर पर विठाते हैं। अपने-अपने निजी हितों से ऊपर उठकर बात करने की फुरसत किसे है ? आतंक का यह भस्मासुर हमने ही तैयार किया है-अब वह हमारे पीछे भाग रहा है तो दोष किसका है ?

(15 अप्रैल, 2001)
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