आभिजात्यवादी राजनीति का विस्तारवादी चेहरा
भाजपा के नए अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का नाम सुनकर चौकिंए मत - यह आभिजात्यवादी राजनीति का नया पैंतरा है । यह खबर किसी चयन-मनोनयन की सूचना भर नहीं है - यह समूची भारतीय राजनीति की दयनीयता का बखान करती है। भारतीय जनता पार्टी ने इस नए दौर की राजनीति का भविष्य पढ़ लिया है, बंगारू उसी की काट है। किंतु गलतफहमी मत पालिएगा, यह बदलाव की बयार किसी बहस-विमर्श या सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा से प्रेरित नहीं है। बंगारू का चयन सिर्फ राजनीतिक मजबूरियों से उपजा फैसला है, इसलिए एक ‘दलित’के केंद्र की सत्ता पर राज कर रही पार्टीं का अध्यक्ष बनने की खबर उत्साह नहीं जगाती । इससे भारतीय जनता पार्टी के चेहरे, चाल और चरित्र में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। अंतर सिर्फ इतना होगा कि कुशाभाऊ ठाकरे की जगत एक कम उम्र दक्षिण भारतीय दलित उस पद की शोशा बढ़ाएगा । अब वोट बटोरने के मोर्चें पर अचलबिहारी वाजपेयी अकेले नहीं होंगे, बंगारू भी साथ नहीं । सही अर्थों में ब्राह्मणवादी राजनीति अब अपने संकुचन की खामियों को भांपकर एक विस्तारवादी प्रयोग के ‘मुड’ में है। देर-सबेर सभी दलों को इसी रास्ते पर लौटना होगा ।
भाजपा के वैचारिक अधिष्ठान में वैसे भी दलितों के लिए जगह नहीं है। वह सत्ता में न रहने के बावजूद शासकवर्गों एवं प्रभुवर्गों के ही हितों की पैरवीकार रही है। पूंजीवाद ही उसका अधिष्ठान एवं प्रस्थानबिंदु रहा है। गरीबों-मजलूमों की चर्चा आने पर भाजपा नेता बड़े सम्मान से अपने नेता पं. दीनदयाल उपाध्याय का संदर्भ याद दिलाते हैं और उनके द्वारा दिए गए ‘दीनदयाल की सेवा’ के मंत्र का स्मरण करते हैं। किंतु आज की भाजपाई राजनीति में दीनदयाल उपाध्याय का स्मरण ठीक वैसा ही है, जैसे कांग्रेसजन महात्मा गांधी के नाम का स्मरण करते हैं। सही अर्थों में भाजपा के एजेंडे पर आम आदमी, हाशिए पर खड़े लोग कभी रहे ही नहीं। उसकी सारी राजनीति समान नागरिक संहिता, धारा 370 और राममंदिर तक आकर दम तोड़ देती है। पार्टी के गोविंदाचार्य जैसे नेता जब कभी पार्टीं में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की चर्चा चलाते हैं तो गंभीरता से नहीं लिया जाता । राजनीति की मजबूरियां भाजपा से कुछ भी करा लें - वह सही मन से कभी गरीबों के हितों का विचार करने वाला दल नहीं बन सकता। कांग्रेस पार्टी का नरसिंहराव, मनमोहन सिंह के पूर्व का इतिहास जरूर आम आदमी के पक्ष में खड़ा दिखता था, किन्तु भाजपा अपने जन्मकाल से ही सामाजिक सवालों से कतराती रही है। यह अकारण नहीं है कि भाजपा को अल्पसंखयकों से जुड़े मुद्दों को उठाने में कुछ ज्यादा ही रस मिलता है। अपनी सारी मशक्कत के बावजूद भारतीय जनता पार्टी आज भी कांग्रेस की भांति अखिल भारतीय जनस्वीकृति नहीं प्राप्त कर सकी। कांग्रेस ने जो स्थान तेजी से चोड़ा, वह उसे भर न सकी। गठबंधन की राजनीति के चलते वह राजसत्ता के केंद्र में जरूर है, किंतु भाजपा नेतृत्व को पता है कि उसका आधार छीज रहा है। बंगारू लक्ष्णण इसी छीजते जनाधार को बचाने और बढ़ाने का ‘तुरुप’ हैं। धर्म की राजनीति और भवानात्मक सवालों की, ‘रथयात्राओं’ की सीमाएं, भाजपा ने समझ ली है। देर से ही अब उसने देश के सामाजिक ताने बाने की शक्ति को पहचानना शुरू किया है। यह मजबूरी सही, पर यह परिवर्तन का आगाज तो है ही।
हालांकि नीति, विचार और कार्यक्रमों के मोर्चें पर भाजपा के नए अध्यक्ष चमत्कार कर बैठेंगे, यह आशा लगाना व्यर्थ है। सरकार में उनका कितना दखल रहेगा यह सरकार में उनकी वर्तमान स्थिति से ही जाहिर है। (उल्लेखनीय है कि भाजपा के सर्वोच्च पद पर बैठने वाले बंगारू लक्ष्मण अटल सरकार में रेल राज्यमंत्री हैं।) सो वे नीतियों को प्रभावित कर सकने की स्थिति में नहीं होंगे। स्पष्ट है सरकार चलाएंगे प्रमोद महाजन, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और कुमार मंगलम, जिनका नारा है विनिवेश तथा संकल्प है, सार्वजनिक उद्यमों की बिक्री । नीतियां बनाने के मोर्चें पर भाजपा के ‘अलीट चेहरे’ होंगे, जो देश-विदेश की पूंजीवादी जमातों को खुश रखेंगे और वोट मांगने के मोर्चे पर होंगे बंगारू लक्ष्मण। सरकार की नीतियों से गरीब और गरीब होगा, अमीर-गरीब की खाई बढ़ेगी । लेकिन भाजपा के पास दिखाने को एक विनम्र दलित चेहरा होगा और यह संदेश भी- ‘हमें आपकी चिंता है भाई’ ।
बंगारू लक्ष्मण की यह ताजपोशी सही अर्थों में 90 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा छेड़ी गई उस राजनीति का परिणाम है, जिसे हम ‘सामाजिक न्याय’ के नाम से जानते हैं। उस दौर में वी. पी. सिंह, आडवानी के ‘मंदिर कार्ड’ से मात खा गए थे। लेकिन वह नारा अब भारतीय राजनीति में अपने सही अर्थ ग्रहण कर रहा है। उत्तर भारत के प्रदेशों की राजनीतिक चुनौतियों के मद्देनजर हर दल को अपनी रणनीति इन्ही ताक (सामाजिक न्याय) के आधार पर तय करनी पड़ रही है। खासकर उ.प्र. में बने ताजा समीकरणों में भाजपा बुरी तरह उलझ गई है। कल्याण सिंह के बगावती तेवरों से उसे यह जवाब देना भारी पड़ रहा है कि वह पिछड़ों-दलितों की विरोधी नहीं है। बंगारू लक्ष्मण के चयन के अंदर से झांकती मजबूरियों को यदि उ. प्र. के संदर्भ में देखा जाए तो बात तत्काल समझ में आ जाती है । शायद इसीलिए भाजपा एक तरफ ते बंगारू को अध्यक्ष बना रही है तो दूसरी और उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी से तालमेल कर चुनाव लड़ने के जुगाड़ में भी है।
भाजपा के ब्राम्हणवादी चेहरे को ठीक से समझने के लिए अब थोड़ी-सी बातें बंगारू लक्ष्मण के बारे में भी। आज दिन बंगारू लक्ष्मण को भाजपा ने अपना सिरमौर माना है, वे 1992 में नांद्याल से तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे । आंध्र का होने के नाते तेलुगूदेशम ने राव के खलाफ प्रत्याशी नहीं लड़ाया, किंतु भाजपा ने बंगारू लक्ष्मण को अकेला छोड़ दिया गया और भाजपा का कोई स्टार प्रचारक उनके क्षेत्र में प्रचार करने नहीं गया। आज के प्रधानमंत्री भी नहीं। वहीं जब बेल्लारी में सोनिया गांधी के खिलाफ सुषमा स्वराज उमीदवार बनी तो समूची पार्टी ने वहां ‘धर्मयुद्ध’ सा छेड़ दिया । केंद्र में भाजपा की सरकार बनी तो बंगारू लक्ष्मण को ममता बनर्जी के साथ राज्यमंत्री बनाया गया। अटल सरकार में कैबिनेट मंत्री का ओहदा भी न पा सके लक्ष्मण को भाजपा जब अध्यक्ष बनाती है तो यह बात उसके वास्तुविक चिंतन को भी उजागर करती है। सही मायनों में भाजपा की विचार सूची से भी बंगारू का नाम गायब था। जनाकृष्णमूर्ति, वेकैया नायडू यहां तक कि विद्यार्थी परिषद के पूर्व अध्यक्ष राज्यसभा सदस्य बाल आप्टे का नाम भी चलाया गया, किंतु इस ‘विनम्र दलित’ का नाम आखिरी क्षणों में आया । इसलिए यह बदलाव भाजपा को बदल पाएगा ऐसा नहीं लगता, क्योंकि जब भी कोई दलित अपने वर्गगत एजेंटे पर काम शुरू करता है तो भाजपा के नेताओं की पेशानी पर बल पड़ जाते हैं- उ.प्र. के राज्यपाल सूरजभान के संदर्भ से यह बात समझी जा सकती है।
बसपा के तेजी से बढते आधार से मद्देनजर जब हरियाणा के दलित नेता सूरजभान को उ.प्र. में राज्यपाल बनाकर भेजा गया, आखिर उनसे क्या अपेक्षाएं थीं ? आज जब दलितों से जुड़े सवालों पर राज्यपाल ने सक्रियता दिखाई तो वे राज्य भाजपा नेताओं को खटकने लगे हैं। एक समय रिपब्लिकेन पार्टी के नेता रहे संघप्रिय गौतम संप्रति भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं, किन्तु भाजपा नेतृत्व उनके तेज तेवरों के चलते आज भी उन पर भरोसा नहीं कर पाता । बंगारू लक्ष्मण इस सबसे अलग एक अनुशासित एवं निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान रखते हैं, किंतु अध्यक्ष के रुप में उनके सामने चुनौतियां विकट हैं। उन्हें जहां होगा, वहीं गरीबों, दलितों एक वंचितों की पीड़ा को स्वर देना होगा । भाजपा की सरकार और संगठन में वे यदि हाशिए पर खड़े लोगों के प्रति रत्ती भर भी संवेदना जगा पाए तो उका चयन भले आज एक ‘मजबूरी का फैसला’ माना जा रहा है कल उसे ‘ऐतिहासिक परिवर्तन’ की भी संज्ञा मिल सकती है। भाजपा की विस्तारवादी आकांक्षा और सामाजिक समीकरणों के चलते भले उन्हें यह पद ‘भाग्य’ से मिला है, वे इसे अपने और देश के गरीबों-वंचितों के ‘सौभाग्य’ में बदल सकते हैं। फिलहाल तो देश भाजपा के नए अध्यक्ष को शुभकामनाएं ही दे सकता है।
(20 अगस्त,2000)
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