जारी रहेगा यह भरतमिलाप !


‘लगता है भारतीय अर्थव्यवस्था 200 वर्ष पीछे लौट रही है, जब उपनिवेशवादी, भारतीयों को श्रमिकों की तरह बाहर ले गए थे और धीरे-धीरे भारत पहले आर्थिक और फिर राजनीतिक दासता में जकड़ गया था।’ यह टिप्पणी भारत के किसी साम्यवादी नेता या स्वदेशी जागरण मंच के प्रवक्ता की नहीं है। यह चिंता है अमरीका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विज्ञान के प्रोफेसर नार्मन मैटलाफ की । गत 12 अगस्त को अमरीकी दैनिक ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में छपे अपने लेख में प्रो. मैटलाफ ने साफ कहा है कि ‘अमरीका भारत के उच्च प्रौद्योगिकी-कर्मियों को इसलिए नहीं चाहता कि वहां व्यक्तियों की कमी है, बल्कि इसलिए कि उसे कम पैसे में सेवाएं ली जा सकती है।’ मैटलाफ की चिंताएं दरअसल सूचना महाशक्ति बनने के भारत के दिवास्वप्न को आइना दिखाती हैं। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी भी अपनी 13 दिनों की अमरीका यात्रा में इन्हीं सपनों की ‘मार्केटिंग’ कर लौटे हैं। उन्होंने न्यूयार्क को हटल वाल्डफ एस्टोरिया में भारतीय उद्योग परिसंघ द्वारा आयोजित सम्मेलन में अमरीकी उद्यमियों को भरोसा दिलाया कि आर्थिक सुधार बेरोकटोक जारी रहेंगे। संचार, बीमा, विमानसेवा आदि के क्षेत्र खोल दिए गए हैं। रेल के बारे में राकेश मोहन समिति की रिपोर्ट प्रतीक्षित है। एक कुशल व्यापारी की तरह वाजपेयी ने यह भी कहा कि ‘भारत जहां व्यापक तौर पर अंग्रेजी बोली जाती है, अनेक महत्वपूर्ण ढांचागत सुविधाओं के कारण विदेशी पूंजीनिवेश के लिए एक बड़ा अवसर प्रदान करता है।’

भारत-अमरीका के बीच बढ़ती रिश्तों की मधुरता को कई तरह से पारिभाषित करने की कोशिशें हो रही हैं। दरअसल उसका सबसे बड़ा कारण आर्थिक और वित्तीय है। भारत इस समय दुनिया की 10 सबसे तेज बढ़ती हुई आर्थिक शक्तियों में से एक है। चीन के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा संभावित बाजार भी है। जाहिर है अमरीका के लिए भारत की उपेक्षा संभव नहीं है। वैसे भी भारत का सबसे बड़ा व्यावसायिक पार्टनर अमरीका है। वाजपेयी की यात्रा को भारत-पाक संदर्भों, सुरक्षा चिंताओं से अलग इस रूप में भी देखने और समझने की जरूरत है। आजादी के बाद से ही भारत-अमरीका अलग-अलग रास्तों के राही रहे हैं। जो बातें कभी रूस के संदर्भ में कही जाती थीं वे जुमले अब अमरीका के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं। दसअसल इस दशक में चली खुले बाजार की अर्थव्यवस्था ने हमें एक पिछलग्गू पूंजावादी देश में रूपांतरित कर दिया है। जाहिर है ऐसे में भारत का आदर्श अमरीका ही हो सकता है। यह अकारण नही है कि जिस पाकिस्तान को अमरीका 50 सालों से पालता-पोसता आया। वही अब अचानक उसे आतंकवाद का पोषक नजर आने लगा ।

सोवियत रूस के पतन ने दरअसल दुनिया के राजनय एवं अर्थव्यवस्था में काफी फेरबदल किए हैं। यह बदलाव ही भारत-अमरीका को जोड़ने वाले तत्व बने हैं। इस्लामी आतंकवाद की चुनौती के साथ-साथ आर्थिक तत्व ही वे प्रमुख कारण हैं, जो दोस्ताने के सुर बनाते हैं। यह रेखांकित किए जाने लायक बात है कि जैसा एक दूसरे का स्वागत दिल्ली में क्लिंटन का और अमरीका में वाजपेयी का किया गया, लगभग वही वातावरण इंदिरा गांधी के रूस जाने और रूसी नेताओं के भारत आने पर होता था। लेकिन रूसी राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा को आज उस भाव से क्यों नहीं लिया जा रहा ? जबकि हाल तक कारगिल युद्ध में भी जब अमरीका सिर्फ जुबानी जमाखर्च से काम चलता रहै, रूस ने भारत की सैन्य यंत्रों की सहायता की और भारत के साथ खड़ा रहा। सच कहें तो यह बाजार की ही माया है। भारत-अमरीकी रिश्तों की इस गर्मजोशी पर फूलने के बजाए यह विचार करना जरूरी है कि क्या सिर्फ अमरीका ही हमारी दोस्ती के चलते बदला है। सच तो यह है कि हमने अपने को पूरी तरह बदल डाला है। सोवियत संघ के विघटन और दुनिया के कम्युनिस्ट राज्यों के एक के बाद एक के विलोप के बाद भारत के सामने विदेशी मुद्रा के भुगतान की चुनौतियां सामने थीं। तब भारत की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ही यह अनुभव किया कि विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद के अलावा कोई चारा नहीं है। जाहिर है ये संस्थान अमरीका दबाव में चलते हैं, इन्हीं के दबाव में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था विदेशी व्यापार और पूंजी के लिए खोली । यह समाजवाद का रास्ता छोड़कर पूंजीवाद के रास्ते पर दौड़ पड़ने का दौर था। आज जब पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव कहते हैं कि ‘हमने तो खिड़कियां खोली थीं, इन्होंने तो दरवाजे ही उखाड़ डाले।’ यह दरवाजा उखाड़ना पूर्णतः पूंजीवाद की मान्यताओं के सामने आत्मसमर्पण है। जाहिर है हमें इस रास्ते पर अमरीका की अगुवाई ही स्वीकारनी होगी।

भारत जैसे गरीब और विविध विषमताओं वाले देश का अमरीका को आदर्श मान लेना यह जाहिर करता है कि अब उसका शोषणहीन, गैरबराबरी मुक्त, न्यायपूर्ण समाज बनाने का लक्ष्य भ्रष्ट हो गया है और उसने पूंजी व बाजार की शक्तियों को दंडवत कर लिया है। इसलिए मूल्यांकन के तरीके बदल गए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘कुछ भी करो आखिरी आदमी का ख्याल करना, कि उसे क्या मिला।’हम आज यह गिनती कर रहे हैं कि इस उदारीकरण के दौर में कितने अरबपति-करोड़पति तैयार हुए । कमाना और सफलता अमरीकी दर्शन का मूलमंत्र हो सकता है। किंतु गांधी स्वराज और आखिरी आदमी के विकास को अपनी प्राथमिक चिंताओं में शुमार करते थे । जाहिर है इन मूल्यों को हमारी राजनीति ने शीर्षासन करा दिया है और हमारी सरकार एक दशक के भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण के जाहिर दुष्परिणामों के बावजूद दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों के लिए तैयार है। इस साहस पर अगर क्लिंटन, बाजपेयी की पीठ थपछपाते हैं तो गलत क्या है । पूंजीवाद की चिंताओं में कभी ‘आखिरी आदमी’ को जगह नहीं मिल सकती । भारत ने यह बात समझ ली है और स्वीकार भी की है। इसलिए चौतरफा व्यापार और उससे उपजी पूंजी की चमक की ही चर्चाएं हैं। सार्वजनिक निगमों की नीलामी का बाजार सरगर्म है, विनिवेश ताजा दौर का मूलमंत्र है। जाहिर है ये बढ़ते व्यापारिक रिश्ते भारतीय-उद्योग जगत को चौपट ही करेंगे । भारत ने चालीस साल के केंद्रीकृत नियोजन और समाजवादी अर्थव्यवस्था के नाम पर जो ढांचा खड़ा किया था, वह अब ध्वस्त हो चुका है। इस खुशी में व्हाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री को यदि क्लिंटन इतिहास का सबसे बड़ा भोज बताकर ‘डिनर’ देते हैं, तो आश्चर्य मत पालिए, यह दो पूंजीवादियों का भरतमिलाप है। इसे आप रोक नहीं सकते । क्लिंटन रहे या जाएं, वाजपेयी प्रधानमंत्री रहें न रहें भारत-अमरीका का यह ‘भरत-मिलाप’ जारी रहेगा। हमारे संतों ने गलत थोड़े ही कहा है ‘माया महाठगिनी हम जानी।’

(1अक्टूबर, 2000)
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