बंगारू के ‘मुस्लिम प्रेम’ पर यह हाहाकार क्यों ?
एक पार्टी, जिसे मुसलमानों से जुड़े मुद्दे उठाने में अब तक कुछ ज्यादा ही ‘रस’ इसलिए आता था कि उसके परंपरागत उग्र हिंदू वोट आधार को इससे राहत मलती थी। वही पार्टी अगर मुसलमानों से बेहतर रिश्ते बनाने की बनाने की बात करने लगे तो क्या यह मौका उसे नहीं मिलना चाहिए ?लेकिन क्या कारण है कि नागपुर अधिवेशन में भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के ‘आह्वान ’ के बाद से ही सेकुलर जमातों और मीडिया में इसे लेकर एक विलाप मिश्रित हाहाकार व्यप्त है ? क्या मुस्लिमों के बीच जाने और उन्हें पार्टी से जोड़ने की आकांक्षा अवैध है ? क्या यह हाहाकार सिर्फ इसलिए है कि अब तक मुस्लिम एक वोट बैंक के रूप में सेकुलर पार्टियों का साथ देने आए हैं, अतएव अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की पीड़ा से ही दर्द, चीत्कार में बदल गया है। यह कहने, बताने और आरोप लगाने की बात नही है कि भाजपा का यह फैसला राजनीतिक मजबूरियों से उपजा है, जिसे नए अध्यक्ष ‘पार्टी का सामाजिक और भौगोलिक आदार’ बढ़ाने के जुमले के रूप में व्यक्त भी कर रहे हैं। ‘पार्टी का सामाजिक और भौगोलिक आधार’ बढ़ाने के जुमले के रूप में व्यक्त भी कर रहे हैं। जाहिर है मुस्लिम मानस में भी बंगारू के आह्वान का कोई खास उत्साह नहीं दिखा, उर्दू अखबार तो इस आह्वान को खारिज करते ही दिखे।
1952 की जनसंघ और 1980 की भाजपा की राजनीतिक धारा के प्रति मुस्लिम के मानस में यह उत्साहहीनता अकारण भी नहीं है। कारण कुछ भी रहे हों भाजपा और मुस्लिम मानस बराबर दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े दिखे। अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने 1977 में अपने विदेश मंत्री बनने पर एक लंबी लकीर जरूर खींची, पर पार्टी की मुख्यधारा में वे अपनी इस सौमनस्यतावादी राजनीति का विस्तार न कर सके। यह अलग बात है कि 1980 में जब वे नई-नई भाजपा के अध्यक्ष बने तो उन्होंने हिंदुत्व के बजाए गांधीवाद- समाजवाद का नारा दिया । तब से लेकर आज तक भारतीय राजनीति में अनेक परिवर्तन आए और इस बीच राम मंदिर आंदोलन के उभार ने भाजपा व मुस्लिम समाज के बीच संवाद की रही-सही सूरत भी समाप्त कर दी। सत्ता में आने के बाद अटवबिहारी वाजपेयी सही अर्थों में पूरी शक्ति के साथ पार्टी और सरकार दोनों में प्रभावी भूमिका में हैं। जाहिर है बंगारू का आह्वान वाजपेयी के ही द्वारा खींची गई लकीर को आगे बढ़ाने का उपक्रम है। एक ऐसी पार्टी जिसका अतीत मुसलमानों को शंका में डालता है, क्या उनसे संवाद बनाने की उसकी कोशिश गलत है ? जाहिर है संवाद की यह प्रक्रिया दोनों को बदलेगी । भाजपा को भी बदलना होगा तो मुसलमानों को भी कुछ सच्चाइयां स्वीकारनी होंगी, तभी वे व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से राष्ट्रजीवन के यह साझेदार बन सकेंगे ।
भारतीय जनता पार्टी और उसके नेतृत्व को इतिहास ने यह अवसर सुलभ कराया है, जब वे संवाद के माध्यम से तमाम गलतफहमियों को दूर कर सकते हैं। उनमें वे तमाम सवाल भी हैं, जो कड़वे हैं, उनके भी समाधान तलाशने होंगे। जैसे मुहम्मद बिन कासिम, गजनी, गोरी, बाबर जैसे हमलावरों और शेरशाह सूरी, अकबर न बहादुरशाह जफर जैसे बादशाहों में कोई अंतर है या नहीं ? भारत के हिंदू जायसी, कबीर, रसखान और रहीं को अगर अपना पूर्वज मानें तो क्या विदेशी मजहब और देशी संस्कृति साथ-साथ नहीं चल सकते जैसा कि इंडोनेशिया या जापान जैसे देशों में होता है। मंदिर और मूर्तियों तोड़ने के लिए माफी कौन मांगेगा या नहीं मांगेगा ? जाहिर है ये सवाल दोनों समुदायों के बीच खड़े है।
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने जो द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत खड़ा किया था वह तो भरभराकर गिर गया है। आज जब मुहाजिर कौमी मूवमेंट के नेता अल्ताफ हुसैन यह कहते हैं कि ‘देश का बंटवारा इतिहास की सबसे बड़ी भूल थी।’ तो वे यह स्वीकार रहे होते हैं कि भारत के बंटवारे के समय भारत में रूक गए मुसलमान सही थे। यह संदेश उनके लिए एक नसीहत साबित हो सकता है जो मजहबी आधार पर अपनी-अपनी जन्नतें रचने का ख्वाब देखते रहते हैं, इतिहास की इस घड़ी में राजनीतिक मजबूरियों के चलते भी यदि भाजपा और मुसलमानों के बीच संवाद शुरू हो रहा है तो उसे शंका का निगाह से नहीं देखा जाना चाहिए लेकिन इस संवाद से तुष्टीकरण की राजनीतिक दलों द्वारा पोषित परंपरा को बल नहीं मिलना चाहिए। बातचीत और रिश्ते बराबरी के हों किसी पर दया करने, कृपा दिखाने के भाव न हों । मुस्मिल मानस को भी यह स्वीकारना होगा कि देश की प्रगति और विकास में ही उसके बेहतर भविष्य का सपना छिपा है तो हिंदू जमातों को भी यह मानना होगा कि वे 20 करोड़ मुस्लिम समाज को उपेक्षित कर 21 वीं सदी के समर्थ भारत का स्वप्न नहीं देख सकते ।
भारत के लोगों को यह सच्चाई स्वीकार कर लेनी चाहिए कि मजहब और राजनीति एक नहीं है। राजनीति सत्ता पाने की रणनीति है, वह सिर्फ मजहब का इस्तेमाल करती है। इसीलिए मजहब और राजनीति का मिश्रण सबसे विस्फोटक होता है। आप याद करें जिस बाबरी मस्जिद के लिए आडवानियों-जोशियों, बुखारियों-शहाबुद्दीनों ने जमीन-आसमान एक कर दिया था । आज के हालात क्या हैं आडवानी-जोशी ने उसे एजेंडे से बाहर कर दिया है, तो बुखारी शहाबुद्दीन मस्जिद को बचा पाने की विफलता में हाशिए में चले गए हैं। यह भी सच्चाई है कि अल्पसंख्यक हमेशा अपनी सुरक्षा करती है। उधर बहुसंख्यक इस बात का डर दिखा कर अपने बीच घृणा और द्वेष का माहौल बनाए रखते हैं कि वे एक दिन अल्पसंख्यक हो जाएंगे। एक का डर वास्तविक है तो दूसरे का काल्पनिक।
प्रतिक्रियाओं के इस सिलसिले में ही जब भावनात्मक नारेबाजियां तेज होती हैं और सांप्रदायिकता का जुनून सवार होता है तो व्यक्ति कहीं दूर अपने धर्म बंधुओं की हत्या की खबर पढ़कर अपने ही पड़ोसी का कत्ल कर देता है। जाहिर है यह रवैया कहीं से तार्किक और धार्मिक नहीं कहा जा सकता । यह बातें किसी सभ्य समाज को शोभा नहीं देती। कोई हिंदू है या मुसलमान या भारतीय, यह उसका खुद का किया हुआ चुनाव नहीं है। मानिए, कोई धर्म बदल भी ले तो भी वह अपने भारतीय होने का क्या करेगा ? तो क्या सिर्फ इसलिए किसी को मार दिया जाना चाहिए कि उसके नाम में ‘हुसैन’, ‘लाल’ या ‘डिसूजा’ लगा है।
इतिहास की इस घड़ी में जब हम नई सदी में भारत को एक विश्वशक्ति बनाने का सपना देख रहे हैं तो लम्पट, अशिक्षित एवं अपराधी जमातों की तरह व्यवहार करने के बजाए हमें श्रुद्रताओं से ऊपर उठकर अपने भविष्य का विचार करते हुए उस सपने को साकार करना चाहिए, जिसे महात्मा गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद ने देखा था। इस रास्ते में आ रही अड़चनों को हटाने और रास्ता बनाने के प्रयास जितने तेज होंगे भारत उतनी ही गति और ऊर्जा के साथ मानवता का प्रवक्ता बनकर विश्व मंच पर आदर प्राप्त करेगा। राजनीतिक दलों के भरोसे नहीं किंतु उनसे संवाद करते हुए हम बेहतर भविष्य की ओर बढ़े, क्योंकि आज की तारीख यह बता चुकी है जिन्ना के ‘पवित्रों के देश’ का क्या हुआ। इसलिए यह सबक हमारे लिए भी है कि हिंदुत्व और अखंड भारत एक साथ नहीं चल सकते । एक अरब लोगों पर एक मजहब, एक भाषा, एक ध्वज, एक नेता नहीं थोपा जा सकता । बहुलतावाद और पारस्परिक सद्भाव ही इस देश की एकता की गारंटी है। हिंदुत्व की झंडाबरदार भाजपा भी यदि इस बात को स्वीकार कर रही है तो आपको आपत्ति क्यों है ?
(8 अक्टूबर,2000)
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