भूमिका - -अष्टभुजा शुक्ल

जैसी कि उम्मीद थी, सक्रिय और युवा पत्रकार संजय द्विवेदी की 2003 में छपी पुस्तक ‘इस सूचना समर में’ के लगभग तुरंत बाद अगला एपीसोड ‘मत पूछ हुआ क्या क्या’ के रुप में जारी होने को है । यह बिना सांस लिए भयानक लिक्खाड़ता या लेखन-प्रकाशन का मनोरोग नहीं बल्कि एक पत्रकार की सतत् जागरुकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि पत्रकारिता कोई दीर्घसूत्री कर्म नहीं । वह नित्य सामना, नित्य लेखन और नित्य जन्म-मरण है । वहां किसी अनुमान अटकल, कल या विनिवेश के लिए कोई जगह नहीं । वह रोज की रोजी और रोजा दोनों है । ऐसे में किसी जिम्मेदार पत्रकार की आँखों में तन्द्रा नहीं बल्कि एक उनींदापन होना स्वाभाविक है । यही उसे जिलाये और जलाये रखता है । अतः इसी तारतम्य में आ रही आगामी पुस्तक पत्रकार की लोकप्रियता, उसकी खपत, पहुंच और पटनीयता एवं स्वीकार्यता का प्रमाण तो है ही; साथ ही साथ उसकी सक्रिय बौद्धिकता का अभिलेख भी है ।

यह अकारण नहीं कि ‘मत पूछ हुआ क्या क्या’ का प्रास्थानिक लेख ‘कौन लेगा खबरपालिका के बदहाली की खबर’ ही पुस्तक का अग्रलेख है । ‘खबरपालिका’ वास्तव में कार्यपालिका, न्यायपालिका आदि की ही तर्ज पर ईजाद किया गया एक अभिनव टर्म है । आधुनिक समय में इस पालिका की भूमिका एवं महत्व निर्विवाद है । लेकिन जब यह पालिका ‘तोप-मुकाबिल’ होने पर सत्ता-प्रतिष्ठानों के जयगान पर कदमताल करने लगती है जो जन गण की पीठ में ही छूरा भोंकती है और विदूषक की भूमिका में आ जाती है । इसके बरक्स जब खबरपालिका अपनी जवाबदेही से जनान्दोलनों के लिए जमीन तैयार करती है तो शिरोधार्य बन जताती है । क्योंकि पत्रकार जन प्रतिनिधि न सही, जन-प्रवक्ता अवश्य होता है । पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जी ने तो ‘अपनी खबर’ ली थी जबकि संजय एक साहसिक पत्रकार होने के नाते अपने पेशे और पेशकारों की खबर इस लेख में लेते हुए दिखाई देते हैं । यहां उन्होंने पाठक वर्ग के प्रति प्रिन्ट-मीडिया की जिम्मेदारी, सम्पादक-प्रकाशक के रिश्तों, उनकी बदली हुई भूमिकाओं और उनके कारणों की अन्दरुनी पड़ताल की है । इतिहास का राजाश्रय वर्तमान के सेठाश्रय में तब्दील हो चुका है । अतः अखबार का सम्पादक, अखबार के मालिक के सम्मुख याची बनकर निरीह मुद्रा में प्रायः गुटुरु गूं कर रहा है । अर्थात् पत्रकारिता की रीति-नीति पर व्यावसायिकता की रीति-नीति हावी है । यहां पत्रकारिता लाचार और कातर है । इस लेख में संजय हिन्दी मानसिकता पर अंग्रेजियत के वर्चस्व को भी लक्षित करते हैं और समूची पत्रकारिता को झकझोरने वाले इस चिन्तन में अखबार और पाठकों के अन्तर्सम्बन्धों पर पुनर्विचार करते हुए फिर से एक नैतिक और सांस्कृतिक जागरण के लिए आगाह करते हैं । इस पुस्तक का यह भीज-लेख एक तरह से पत्रकारिता-जगत को जौकन्ना करने वाला है ।

जहां पर एक कओर अखबार के पाठकों की संख्या में उत्तरोत्तर इजाफा हुआ है किंतु अखबार-विशेष के प्रति प्रतिबद्धता में निरन्तर ह्वास आया है अर्थात् पाठक लगातार विकल्पों की तलाश में जुटा है, वहीं पर दूसरी ओर पुस्तकों की पाठनीयता को लकवा मार गया है ।अध्ययन की प्रवृत्ति ही चुक रही है । उस चूक के लिए दृश्य-मीडिया को जिम्मेदार ठहरा कर किनारा नहीं कसा जा सकता । एक चिन्तित और चिन्तनशील बुद्धिजीवी, लेखक और प्रकाशक सभी इस विकट समस्या पर बार-बार विचार करने के लिए बाध्य हैं । आखिर, शब्दों के कारोबार से जुड़े लोगों का यह बल्कि यही सर्वप्रमुख दायित्व है । ‘बाजार की मार से बेजार हैं किताबें’ लेख में संजय ने कुछ उन बिन्दूओं की ओर उंगली उठाई है जिनसे किताबों की पहुंच प्रभावित हुई है । प्रकाशकों के अरण्यरोदन के बावजूद पुस्तकें छप रही हैं, प्रकाशन का व्यवसाय फल-फूल रहा है फिर भी विडम्बना यह है कि पुसतकों की लोकप्रियता में गिरावट आई है । कारण यह कि पुस्तकों के मूल्य मनमाने ढंग से रखे जाते हैं, सरकारी खरीद-फरोख्त के जुगाड़ से किताबें राजकीय ताबूतों में थोक की थोक सड़ जाती हैं किन्तु आर्थिक दबाव के कारण पुस्तक प्रेमी आम पाठक उनसे वंचित रह जाता है । अच्छी और प्रेरणास्पद पुस्तकों के पाठक सदैव रहे हैं, इलेक्ट्रानिक मीडिया के वर्चस्व के बावजूद अब भी हैं किंतु जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित एवं रुचि-वैभिन्न की अनदेखी ने भी पुस्तक-संचार को प्रभावित किया है । हिन्दी-क्षेत्रों की चिन्ताजनक निरक्षरता ने भी इस स्थिति कोऔर भयावह बनाया है । सच्चाई यह है कि हिन्दी-क्षेत्रों के तथाकथित सम्पन्न और शिक्षित लोग गरीब और नव-साक्षरों से भी गये-भीते हैं । हिन्दी के शिक्षित बहिरंगता के शिकार हैं । पहले जीवन में किताबों के लिए पर्याप्त जगह थी । संभव है कि आज की किताबों में जीवन के लिए ही कम जगह हो! किताबों की इस घटतौली की प्रवृत्ति को इस लेख में संजय उद्घाटित करते हैं-

“प्रकाशकों की भी संख्या बढ़ी है । फिर पाठकीयता के संकट तथा किताबों की मौत की चर्चाएं आखिर क्यों चलाई जा रही हैं। । । । सस्ते दामों पर अच्छी से अच्छी किताबों के पेपर बैक आने चाहिए ।”

ध्यातव्य यह भी है कि पहले सत्ता-राजनीति से जुड़े लोग भी बुद्धिजीवी होते थे, उनमें पढ़ने-लिखने और चिंतन करने कि प्रवृत्ति रहा करती थी । महात्मा गाँधी, लोहिया, नेहरु, सम्पूर्णानंद, सरोजिनी नायडू, राजेन्द्र प्रसाद आदि और उनके पूर्व भगतसिंह, बिस्मिल आदि की एक लम्बी परंपरा रही है । किंतु इसके बाद व्यक्तिवाद के ज्वार और राजनीतिकों के बौद्धिक क्षय का रिजल्ट सामने है । बुद्धिजीवी, शासक वर्ग और राजनीतिक उपेक्षा पर शिकार हुआ है । यहां तक कि विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटलबिहारी जैसे भावुक प्रधानमंत्रियों के शासनकाल में भी लिखने-पढ़ने वालों को न तो तरजीह मिली न प्रोत्साहन न सम्मान । सत्ता की मलाई कुछ बन्दीजनों ने गुणानुवाद करके काटी हो तो वह शासकीय कर्मकाण्डों की गोदक्षिणा ही रही । तथाकथित बौद्धिक शिविरों के खल्वाट खोपड़ी छाप बुद्धिरिपुओं ने कितनी पीढ़ियों को अबतक बुद्धिशून्य और कुन्द बनाया है, इसका कोई लेखा-जोखा नहीं है । अलबत्ता वामपंथी धड़ों में शब्द सत्ता के लिए थोड़ी-बहुत सम्मानित जगह दिखाई देती है । चिर-पवित्र भारतीय संस्कृति की आरती लिखने वाले भी अपने को आज तुलसी का सच्चा आर्य-वीर्य ही मानते हैं । काश, वे तुलसी के शिवाम्बु ही होते । लेकिन भारतीय संदर्भों में सोच की एकांगिता, वैचारिक पतन और बाजारवाद के प्रलोभन ने वामाचार को भी आम जीवन से सोच की एकांगिता, वैचारिक पतन और बाजारवाद के प्रलोभन ने वामाचार को भी आम जीवन से काफी दूर ही रख छोड़ा है ।

इस बीच प्रगतिशीलता भी एक मॉडल और फैशन का रुप धारण कर चुकी है । कटिबद्ध प्रगतिशीलों के अवसरवादी विचलन और यथास्थितिवादियों के श्रीमुख से फूटते प्रगतिशीलता के लावे के बीच एक धुंध भरी निहारिका निर्मित हो चुकी है । ऐसे में कोई ध्रुव नहीं जिधर पूरे आत्मविश्वास के साथ निहारा जा सके। तब उत्तर आधुनिक विचारधारा की गिरफ्त में आ चुके भूमण्डल की छीः छीः थू-थू से किसी सकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकता । आज पारदर्शिता जितनी ही अधिक शब्दों में निवास कर रही है, कर्मों में वह उतनी ही लीपा पोती के दृश्य प्रस्तुत कर रही है। इस ‘पल-पल परिवर्तित मनुज-वेश’ में सुधीश पचौरी की फौरी स्थापनाएं ही सटीक और समय-संगत प्रतीत होती हैं। यहां सब कुछ ‘नर लीला’ ही है। क्योंकि हम जिस विश्व–बाजार के नागरिक बन चुके हैं, उस बाजारवाद को केवल कोसते रहना आत्मप्रवंचना के अलावा कुछ नहीं है। इसी विखण्डनवाद और भूमण्डलीकरण ने बहुत से सुसुप्त विमर्शों के नए द्वार खोले हैं जहां ‘प्रवेश-निषेध’ जैसी पट्टियाँ लटक रही थीं। कहना चाहिए कि अब जीवन के अक्स पुस्तकों में कम, सूचनाओं में अधिक उभर रहे हैं। अतः अब जनजीवन को पुस्तकों के अनुकूल नहीं बल्कि पुस्तकों को जीवन के अनुकूल होना पड़ेगा। यह जीवन क्षेत्र और ज्ञान क्षेत्र के बीच घटित हुआ आमूल उलटफेर है।

बाजार के वर्चस्व ने जिस तरह से हमारे समय को आक्रांत किया है, उससे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र दसों दिशाओं से उसके गहरे दबाव में हैं। अतः स्वाभाविक तौर पर इस पुस्तक की केन्द्रीय चिंता बाजारवाद और उदारीकरण के विश्लेषण, उसके कारणों और परिणामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में उजागर होती है। इस बाजारवाद की चपेट में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों से लेकर व्यक्तिगत सम्बन्ध और साहित्य से लेकर कला, संस्कृति और सिने जगत तक सभी हैं । बिकने और बेचने की होड़ तथा उदारीकरण के स्वांग की प्रतिस्पर्धा ने जीवन और जगत में एक विचित्र किस्म की आपाधापी और नित नए प्रयोगों के लिए प्रलोभनकारी परिस्थितियाँ पैदा की हैं । जीप एण्ड बेस्ट ही आज का मूलमंत्र है । रफ एण्ड टप इसका दूसरा पहलू है । यही वजह है कि ‘मत पूछ हुआ क्या-क्या’ के प्रायः हर तीसरे लेख में बाजारू संस्कति के विषाणु घुसड़े हुए हैं। मोटे तौर पर हमारे समय और सआज को मथने वाली तीन-चार ज्वलंत समस्याओं को केंद्र में रखकर यह किताब संचयित की गई है । जिनमें साम्प्रदायिकता के घटक, आतंकवाद की समस्या, भारतीय राजनीति की करवटें और बाजारीकरण तथा उपभोक्तावाद विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं । जिस बाजारवाद का जिक्र हम करते आ रहे हैं उसके अन्तर्गत ‘व्यावहारिक मोहब्बतें और मौखिक नफरतें’, ‘संचार प्रौद्योगिकी का बाजार,’ ‘अपसंस्कृति एं उपभोक्तावाद के प्रवक्ता’, ‘कौन रोकेगा बाजार का अश्वमेघ’ आदि लेख आते हैं । इस सन्दर्भ में ‘अपसंस्कृति एेवं उपभोक्तावाद के प्रवक्ता’ लेख का यह अंश द्रष्टव्य है-

“बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध में सबको लपेट चुकी है। स्वदेशी आन्दोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं ।”

भारतीय सन्दर्भों में इस वक्त सबसे संवेदनशील समस्या है साम्प्रदायिकता की । साम्प्रदायिकता के उभार और इसकी राजनीति ने हमारे सामाजिक ताने-बाने एवं अमन-चैन को छिन्न-भिन्न किया है । इस उन्माद के पनपने से जहां पारस्परिकता संदेहास्पद हुई है वहीं राजनीतिक दलों ने जनता के धार्मिक विश्वासों का खूब भयादोहन किया है । मजहब के ठेकेदारों ने इसकी बिना पर मजे से अपनी रोटियां सेकी हैं । इस दृष्टि से ‘ये संस्कृति के रखवाले’, ‘लड़ाई आमानवीय जाति प्रथा और पाखंडपूर्ण बहुरुपियेपन के खिलाफ हो’, ‘जिद को जिन्दा रखने का जुनून’, ‘काउंसिल में बहुत सैय्यद, मस्जिद में फकत जुम्मन’, ‘सवाल है कि इस चुनौती से जुझेगा कौन ?’ आदि लेख विचारणीय हैं । अपनी पवित्रतम संस्कृति के सैनिक जब यह भूल जाते हैं कि साझा गंगा-जमुनी संस्कृति ही हिन्दुस्तान की सच्ची धड़कन है, तब वे विद्वेष और उन्माद के शोलों को दबा देते हैं जिसका खामियाजा समुचे पारितन्त्र को भुगताना पड़ता है इस भयावह परिदृश्य से चिन्तित संजय उन अग्निवाही शिवारों के भीतर तक जाकर उनकी पोल खोलने का जोखिम उठाते हैं इस प्रयत्न में वे उन तत्वों को पूरी बेबाकी के साथ फोकस करते हैं जिन्होंने देश का वातावरण विषाक्त करके अपना उल्लू सीधा करने का बीड़ा उठाया है ।

आतंकवाद आज विश्व के सम्मुख एक दैत्याकार चुनौती की तरह खड़ा है । भारतीय सन्दर्भों में जहां पर कश्मीर बुरी तरह इसकी जद में है, वहीं पर इसने विश्व-समुदाय को भी झकझोर रखा है । इसके उन्मूलन के उपायों पर जहां एक ओर वैश्विक सहमति कायम हो रही है, वहीं पर दूसरी शांति पूर्ण सह-अस्तित्व का रखवाला संयुक्त राष्ट्र भी लाचार और अप्रासंगिक नजर आ रहा है । अतः ‘मत पूछ हुआ क्या क्या’ के कई लेख इस विश्व-व्यापी समस्या पर केंद्रित हैं और एक हिन्दुस्तानी पत्रकार के नाते कश्मीर-समस्या और वहां फैला आतंकवाद स्वाभाविक रुप से संजय की निगाह में कई-कहीँ वृत्तों के साथ मौजूद है । यह मौजूदगी ‘यह दर्द लाइलाज’, ‘कब पिघलेगी बर्फ’ आदि लेखों में किसी पार्श्वगायन की तरह नहीं बल्कि एक संवेदनशील पत्रकार के मन की चीत्कार के रुप में दर्ज है । वर्तमान भारतीय राजनीति में सक्रिय उन दो कारकों पर भी लेख की पैनी नजर गढ़ती है जिनसे राजनीतिक समीकरणों में एक नया टर्न आया है । मजहबी तुष्टीकरण की नीति और दलित चेतना का उभार तथा उसका भावनात्मक शोषण इसके दो तीर हैं । आज के राजनीतिक तीरंदाजों ने इन्हीं निशानों पर प्रमुख रुप से सन्धान किया है । इन्हीं स्थितियों के बीच से सिर उठा रहा जातिवादी आभिजात्य भी संजय के विश्वेषण से ओझल नहीं रह पाता ।

एक व्यापक और बहुआयामी सोच से लैस पत्रकार केवल अपने समय की राजनीति का मुखापेक्षी और पैरोकार बन कर नहीं रहा जाता । वह पूरे सआज की नब्ज टटोलने के वास्ते उसके सांस्कृतिक पहलुओं के विवेचन में भी उतनी ही गंभीरता के साथ प्रवृत्त होता है । अतः संजय साहित्य, कला और सिने जगत के बीच भी सार्थक आलोचनात्मक पैठ बनाने का प्रयास करते हैं । ‘संस्कृति के क्षेत्र में बाजार की भाषा मत बोलिए’, ‘विकृतियों का सुपर बाजार’, ‘तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी’ आदि लेख ऐसे विश्लेषणों के अच्छे दृष्टान हैं । यद्यपि ऐसे विश्लेषणों को जहां-तहां लेखक संभाल नहीं पाता तो अपने ही विरोधाभासों का शिकार हो जाता है । जिसे कन्ट्राडिक्शन के कवच से बचाया नहीं जा सकता । फिर भी इन लेखों में उन उभर रही प्रवृत्तियों और ट्रेंड्स की गहरी पहचान दिखाई देती है जो भारतीय कला-जगत में नई सैद्धान्तिकी की परोस हैं । स्त्री-विमर्श को दबा देने वाले भी लेख इस पुस्तक में संग्रहीत हैं । एक, ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’ जिसमें लेखक ने महिला आरक्षण विधेयक को न पारित होने देने के पीछे पुरुष-वर्चस्व की मानसिकता के चोर का कान बड़े ही कौशल से पकड़ा है तथा दूसरा, ‘फिर ठगी गईं मुस्लिम महिलाएं ।’ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बंगूलर में हुई बैठक में मुस्लिम महिलाओं की स्वाधीनता और उनकी बदहाली में सुधार के उपायों पर कोई चर्चा, मजहबी कवच की आड़ में, न हो पाना वास्तव में बदलती हुई दुनिया के बरक्स उन्हें मध्यकालीन गुलामी की बेड़ियों में ही फंसाये रखने की कवायद मात्र है ।

‘मत पुछ हुआ क्या क्या’ में संग्रहित लेखों को सावधानी से देखें तो हम संजय के निरंतर विकसित होते हुए चिन्तन और सरोकारों की व्यापकता का अन्दाजा लगा सकते हैं । स्वदेश-श्रृंखला के संग्रहीत लेख जहां एक खास तरह की यथास्थितिवादी मानसिकता के साये में लिखे गये थे, वहीं नवभारत-श्रृंखला के इन लेखों में लेखक की स्वाधीनता अपेक्षाकृत परिपक्व एवं मुक्तिकामी है । प्रतिबद्धता और स्वायत्ता का फर्क इसी रुप में दिखाई दे जाता है । इस पुस्तक की थीम मात्र सुवाच्य और प्रस्तुति भर नहीं बल्कि इनमें एक तरह की बहसतलबी और वर्जित-क्षेत्रों में प्रवेश की उत्तेजक सनक भी है । तृष्टिगुण के हिसाब से संतुलन बनाए रखने के चक्कर में व्यक्ति जहां का तहां रह जाता है, अलबत्ता उसका मिश्रधन भारी हो जाता है, किन्तु एक सच्ची कलम एक से पौन का ही व्यापार करती है जबकि उसका स्वाधीन हस्तक्षेप उसकी प्रगामी यात्रा का हार्न देता रहता है । जहां संजय अधइक मुखर, धारदार और जिम्मेदार हैं । पहली पुस्तक जहां एक नए पत्रकार की आहट भर थी, वहीं यह पुस्तक सुखियों की नींद हराम करने वाली दूसरी कड़ी दस्तक है । इसमें समग्रता, गंभीरता और व्यापकता तीनों हैं । किसानों की अनदेखी और प्रलयंकारी बाढ़ की विभीषिका भी लेखक की चौकसी से छूटे नहीं हैं । मेरी दृष्टि में इस पुस्तक को अधिक उपयोगी और स्थायी बनाने वाले रेखांकित करने लायक तत्व हैं- शीर्षकों के चयन, अकुंठ विचार-प्रवाह, स्वाधीन चेतना, चतुर्दिक नजर और अन्तर्वस्तु के उपादान । इनमें सबसे मुख्य बात यह है कि संजय के इन लेखों में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं । अतः ये लेख तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं । ऐसे ही शल्य और हस्तक्षेप किसी भी सआज के संजीवनी हैं । जब ‘अंधेरे में बुद्ध’ होंगे, तब बुतों में भी जान आ जाएगी ।

पुनः उम्मीद है कि यह पुस्तक सआज के प्रति एक संवेदनशील पत्रकार की नमकहलाली का सबूत साबित होगी ।

दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है ।


-अष्टभुजा शुक्ल
तुलसी उच्च संस्कृत महाविद्यालय, चित्राखोर
बरहुआ, बनकटी, बस्ती- 272123(उ. प्र. )

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