चुनावी महाभारत से पहले


छत्तीसगढ़ में चनावी महाभारत का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया है। सेनाएं सज रही हैं-हुंकारों –ललकारों का दौर भी प्रारंभ है। इस दौरान हुई दो घटनाओं विधानसभा उपाध्याय बनवारी लाल अग्रवाल का इस्तीफा तथा मरवाही में वीसी शुक्ल पर हमले ने भविष्य की राजनीति का संकेत दे दिया है । ये घटनाएं राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ती असहिष्णुता तथा घटती संवादहीनता का ही परिचायक हैं।

चुनाव वर्ष हमें ज्यादा सचेत होकर, मर्यादाओं में रहकर ऐसा वातावरण बनाना था ताकि लोकतंत्र के इस उत्सव के प्रति हम लोग की आस्था बढ़ा पाते-हम अलग संकेत दे रहे हैं। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति वैसे भी आम जनता की आस्था नहीं बची है ने ही लोग अब उसे बहुत उम्मीदें रखते हैं ताजा दौर में अनास्था की यह धारा कहीं टूटती नहीं दिखती । लोग अपनी रोजमर्रा की कठिन होती जा रही जिंदगी के संघर्ष में ही इतने व्यस्त है कि उन्हें राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रपंच न तो दुखी करते हैं न ही यह उम्मीद दिलाते हैं कि चुनावी मतपेटियों से निकलने वाले देवदूत उनके सारे संकट हर लेंगे। जनता सिर्फ यह चाहती है कि राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग उन पर सिर्फ सदाशयता दिखाएं- ताकि उनके दुख कुछ घटे भले न, पर बढ़े भी नहीं।

छत्तीसगढ़ जैसे नए नवेले राज्य में जहां विकास के काम हर मोर्चे पर तेजी से चल रहे हैं या कह कहें कि सालों की उपेक्षा के बाद अब यह प्रदेश एक आकार ले रहा है, बड़े संयम की जरूरत है। राज्य के विकास में हर वर्ग की भागीदारी जरूरी है। लेकिन ये खबरें दुखी करती हैं कि राजनेता आपस में लड़ रहे हैं। हालात यह है कि मुख्यमंत्री दिल्ली में राज्य के सांसदों की बैठक बुलाते हैं पर भाजपा के सांसद बैठक में नहीं जाते । राज्य के विकास के सवालों पर भी राजनीति का यह रवैया और संवादहीनती दुखी करती है। राज्य के लोग इन चीजों को देख रहे हैं। उनके मन में कसक है कि वे राज्य के निर्माण में, उसकी बेहतरी में सबको साथ नहीं देख पा रहे हैं। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो सार्वजनिक हित के होते हैं। उसमें सबकी एकजुटता को तोडें । व्यापक हित के सवालों पर समवेत आस्था दिखाएं । चुनावी जंग के हथियार राज्य की शांतिप्रिय व समन्वयवादी तासीर को आहत न करें यह ध्यान रखना होगा। साथ ही साथ हम अपने नए राज्य में ऐसे राजनीतिक-सामाजिक मूल्यों की स्थापना करें जिससे आने वाली पीढ़ी की प्रेरणा भूमि भी तैयार हो । लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति ही बहुत सी चीजों का नियमन करती है-वही जोड़ती है, वही तोड़ती है। दुर्भाग्य कि हम बहुत तात्कालिक सवालों पर तात्कालिक हल निकालने के अभ्यासी हो गए हैं। दीर्घकालिक सोच, कर ला विचार आज की राजनीति में नहीं दिखता। सो मर्यादाएं टूट रही हैं, मूर्तिभजन का दौर चरम पर है। ये अप्रिय प्रसंग भी सोच का रास्ता बनाते हैं- हम सोचें और इनकी पुनरावृत्ति से बचें । क्योंकि यही रास्ता जायज है।

(14 मार्च, 2003)
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