नहीं मिलेगी नौकरी


जी हां यह बात छत्तीसगढ़ के वित्तमंत्री रामचंद्र ही कह सकते हैं। कड़वे सच को जिस बेबाकी से उन्होंने व्यक्त किया है वह साहस हमारी मुख्यधारा की राजनीति में कहां दिखता है ? रायुपर में 2 मार्च को अपनी पत्रकार-वार्ता में उन्होंने जो कुछ कहा उसका लब्बोलुआब यह है कि सरकार के पास नौकरी के अवसर सीमित हैं और सरकारी नौकरी देने से बेरोजगारी खत्म नहीं हो सकती । उन्होंने अपने वक्तव्य में यह भी जोड़ा कि सरकार की प्राथमिकताओं में वे लोग हैं, जिनको दो वक्त का भोजन भी नहीं मिलता।

राज्य गठन के 2 साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद सरकार के किसी आधिकारिक प्रवक्ता ने पहली बार इस सच को स्वीकार किया है कि वह नौकरियां नहीं दे सकती । लाखों बेरोजगार युवा जो अपने रार्य में रोजगार की आस लगाए दो सालों से टकटकी लगाए बैठे हैं- वित्तमंत्री का बयान उनके सपनों पर बज्रपात जैसा ही है। इसके बावजूद वित्तमंत्री की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि वे युवा पीढ़ी को भुलावे की दुनिया में नहीं रखना चाहते । वे सपने नहीं दिखाते, रोजगार सृजन के सच्चे-झूठे वायदे भी नहीं करते । नई पीढ़ी जो सपनों की दुनिया में जीती है, वित्तमंत्री ने उन्हें झकझोरा है कि वे इस ‘लोककल्याणकारी राज्य’ से कोई अपेक्षा न रखें । सरकार ‘कारपोरेट’ में बदल रही है और उसकी ‘राज्य के जन’ के प्रति कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। युवाओं के लिए सरकार का संदेश है कि वे अपने रास्ते खुद तलाशें । यह बेहतर होता कि राज्य गठन के आरंभ में ही सरकार ने यह बात साफ कर दी होती कि वह किसी को रोजगार नहीं देगी और नई पीढ़ी उससे कोई अपेक्षा न पाले। सरकार ने ऐसे कोई संकेत न दिए-इस आस में छात्रों ने अपने 2 साल सपने देखते हुए जाया कर दिए। अब मुख्यमंत्री ने एक ओर सरकारी नौकरियों के लिए आयु सीमा बढ़ाने की घोषणा की है तो 2 साल से सुप्त प्राय छत्तीसगढ़ लोकसेवा आयोग ने भी परीक्षाएं कराने की घोषणा की है। इन आश्वासनों के बीच वित्तमंत्री की बात कड़वी जरूर है लेकिन वास्तविकता का साहसिक स्वीकार है।

कुल मिलाकर राज्य के वित्तमंत्री का बयान युवाओं के लिए प्रथम दृष्टया तो नैराश्य का संदेश है तो दूसरी ओर वह नए विकल्पों की ओर देखने का सुझाव भी है। शासकीय क्षेत्रों की नौकरियों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण के मोह में फंसे युवा अन्य क्षेत्रों –विकल्पों की ओर रुख कर सकते हैं । सैद्धांतिक तौर पर एक ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ में सरकार की जिम्मेदारियां बहुत होती हैं लेकिन बदलते परिद्श्य में सरकारें इन सामाजिक दायित्वों से पल्ला झाड़ रही हैं। यह अकारण नहीं है कि बिलासपुर रेलवे जोन जैसे भावनात्मक सवाल पर भी राज्य शासन के एक मंत्री बिलासपुर शहर में ही यह टिप्पणी करके चले जाते हैं कि रेलवे तो कमाने के लिए आया है हम उसे मुफ्त में जमीन क्यों दें ? इस बयान पर भी लोगों की कोई तीव्र प्रतिक्रिया नहीं होती । यह खामोशी और सत्ता का बड़बोलापन दोनों शासन की बदलती भूमिका तथा घटते सामाजिक सरोकारों का प्रतिफलन ही है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में उच्चशिक्षा पर होने वाला व्यय कई गुना हो गया है। हालात यह है कि उच्चशिक्षा सर्फ खास लोगों के लिए बन कर रह जाने वाली है।

वित्तमंत्री के इस पूरे संवाद का मौजूं पहलू यह है कि वे सबके बावजूद आखिरी आदमी की चिंता करना नहीं भूलते । वे कहते हैं कि पहलू यह है कि वे सबके बावजूद आखिरी दो वक्त के निवाले के लिए राहत कार्यों में पसीना बहा रहे हैं। सरकार को इन लोगों की चंता ज्यादा है।’ वित्तमंत्री की यह संवेदनशीलता आश्चर्यचकित करती है। एक तरफ नौकरी न देने के दावे, नौकरी कर रहे लोगों को वीआरएस देने की तैयारी तो दूसरी ओर गरीब के निवाले की इतनी चिंता ?

बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज को दिशा देने, उन्हें राह दिखाने, उनकी उर्जा के रचनात्मक इस्तमाल की जिम्मेदारी क्या सरकार की नहीं है ? ‘नौकरी नहीं दे सकते’ इतना भर कहकर क्या कोई सरकार अपने दायित्वों से मुंह फेर सकती है। राज्य के लाखों युवा अपना भविष्य गढ़ने आखिर किस पर भरोसा करें ? सरकारी नौकरियों के अलावा रोजगार के वैकल्पिक स्त्रोतों के बारे में उन्हें कौन बताएगा ? रोजगार परक पाठ्यक्रमों की उपयोगिया बढ़े इस पर कौन दैगा ? किस कौशल को जानकर छत्तीसगढ की युवा शक्ति इस बाजारवाद में अपना आस्तित्व बचाकर व्यक्तित्व गढ़ सकेगा ? राज्य के शिक्षा संस्थान जैसी पैदावार कर रहे हैं उनकी गुणवत्ता को कौन तय करेगा ? यह जिम्मेदारी अगर सरकार ने नहीं ली तो निराशा और अवसाद में युवा पीढ़ी की दिशा क्या होगी ? सरकार निराशा के दृश्य ही न दिखाए यह भी बताए कि सरकारी नौकरियां न सही युवा पीढी किस तरह और कैसे इस राज्य के विकास में अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकती है। यह रास्ता राज्य के विवेक, नैतिकता और साझादारी का परिचय देगा ।

(6 मार्च, 2003)
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