आंखो में तैरते सपने


सपने सच हों या नहीं पर वे आंखों में तैरते जरूर हैं। युवा वर्ग तो खैर इन्हीं सपनों की दुनिया में जीता है- शायद इसीलिए वह सर्वाधिक ठगा भी जाता है। लेकिन अपने स्वाभाविक उल्लास और जोश से उनमें से कुछ लोग वह जमीन तोड़ने में सफल हो जाते हैं जिस पर परंपरा से कुछ खास लोग काबिज होते आए हैं। अपने गठन के लगभग डेढ़ वर्ष बाद छत्तीसगढ़ राज्य लोकसेवा आयोग के रिक्त पदों को भरने की जो कवायद शुरु की है वग युवाओं के जख्म पर मरहम की तरह ही है।

राज्य गठन की खुशियों व उत्साह के पीछे भूमिपुत्रों की यह सीधी आकांक्षा जुड़ी है कि उन्हें किसी न किसी क रूप में शासन से विशेष अवसर मिलेंगे और वे अपना भविष्य अपने हाथों से गढ़ सकेंगे । एक लोक कल्याणकारी राज्य वैसे भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और रोजगार जैसी जरूरतों को ध्यान में रखकर अपनी प्राथमिकताएं तय करता है।

राज्य में एक साथ की मोर्चों पर विकास के काम शुरू हुए और आकांक्षाएं भी उफान पर थीं। इस सबके बीच शहर चेहरे बदल रहे थे, सड़कें चकाचक हो रही थीं, पुराने भवन आलीशान दिखने लगे थे किंतु राज्य में भारी संख्या में भारी संख्या में उपस्थित युवाओं को लेकर कोई खास पहल कदमी न दिखी । युवा ठगे-ठगे से थे और अखबारों की टोह लेते रहते थे कि आखिर उनके अपने राज्य में भर्तियों का सिलसिला कब शुरू होता है-सो समय ठहर सा गया। अब सरकार ने नई भर्तियों के लिए आयु सीमा 35 वर्ष करके शायद इसी भूल का प्रायश्चित किया है।

इसके बावजूद जिस तरह शासकीय क्षेत्र का आकार सिकुड़ रहा है, नौकरियों के लिए दरवाजे तंग हो रहे हैं ऐसे समय में राज्य के युवाओं का एकटक सरकार की ओर निहारना क्या गहरा अवसाद और निराशा नहीं देगा। राज्य के युवा अपनी सरकार की और आशा से देखते हैं इसमें गलत क्या है ? पर क्या सरकार इन आकांक्षाओं को पूरा कर सकती ? उच्चशिक्षा प्राप्त युवाओं की तैयार फौज में वह कितने हाथों को काम दे सकती है ? अवसाद का सेतु यहीं है-बदलती दुनिया के बावजूद हमारी उम्मीदें सरकारों पर कायम हैं। एक सरकारी नौकरी की तलाश, भले ही वह कितनी भी गई गुजरी क्यों ने हो एक नौजवान के जीवन के कितने स्वर्णिम साल होम कर देती है लेकिन यह मृगमरीचिका हमें तब कर दौड़ाती है जब तक कि हम बेसुध होकर गिर नहीं जाते । गांवों के उजड़ने से वैसे भी पारंपरिक गृहउद्योग तथा कलाएं नष्ट प्राय हैं, जो बची हैं उन्हें प्रोत्साहन देने या सकी मार्केटिंग करने का कौशल नहीं है। छत्तीसगढ़ राज्य के युवा शायद उस कौशल से भी वंचित है जिनकी मांग गैर सरकारी क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियां करती हैं।

पढ़ाई से लेकर हमारे सामाजिक ढांचे में कहीं न कहीं एक दब्बूपन-पिछड़ापन मिश्रित हीनता बोध कायम है। इसे तोड़ने की कोई पहल नहीं दिखती । शायद इसलिए हम और हमारे युवा सुरक्षित क्षेत्र तलाशते हैं। ज्ञान-विज्ञान के नए अनुसासनों, चुनौती पूर्ण कैरियर की तरफ अरुचि और माहौल का अभाव दोनों दिखता है। नई बाजार व्यवस्था में जैसे कौशलपूर्ण ज्ञान की मांग की जा रही है उसमें छत्तीसगढ़ के युवा कहां ठहरते हैं ? सरकारी क्षेत्र आखिर कितनी आकांक्षाओं को आकाश दे पाएगा। उच्चशिक्षा को लेकर हमारी गंभीरता इसी से जाहिर है कि किस तरह कालेजों को मान्यता दी जा रही है और उनमें क्या पढ़ाया-सिखाया जा रहा है। भाषा, तकनीक, शिक्षा हर मोर्च पर दोयम दर्जें की पीढी लाकर हम कैसा छत्तीसगढ़ बनाएंगे ? संकल्प और हौसले भर से सपने पूरे नहीं होते- साधन, वातावरण और संस्थान भी व्यक्तित्व को गढ़ने में अपनी भूमिका निभाते हैं। राजनीतिक दलों के छात्र-युवा संगठन भी इन चुनौतियों पर चुप रहते हैं-उसकी आवाज भी अपने राजनेता के जयकारों से आगे नहीं आती । ऐसे कठिन समय में राज्य के युवाओं के सामने चुनौतियां बहुत हैं किंतु उसने पार जाने का रास्ता बहुत तंग है। युवाओं की ऊर्जा के रचनात्मक इस्तेमाल पर हमारी दृष्टि आज न गई तो कल बहुत देर हो जाएगी ।

(6 फरवरी, 2003)
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