प्रतीक्षित है सामाजिक बदलाव का एक आंदोलन


मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अंततः राजनीति की नब्ज पकड़ ली है। जातीय सम्मेलनों के बहाने वे दरअसल अपनी जमान को पुख्ता करना चाहते हैं। महासमुंद का सम्मेलन इसका एक प्रस्थान बिंदु है, संकेत भी कि यह यात्रा अब रुकेगी नहीं।

म. प्र. पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने महासमुंद सम्मेलन के संदर्भ में यह कहकर कि ‘लोग छत्तीसगढ़ को उ.प्र. और बिहार बनाना चाहते हैं-’ मामले को अतिसरलीकृत करने की कोशिश की है। दरअसल मामला इतना सीधा नहीं है। दमित वर्गों में सत्ता की आकांक्षाएं जगाकर उसे स्वप्न दिखाकर ‘राजनीति’ कुछ भी उद्देश्य पाले-अंततः ये चीजें एक सामाजिक बदलाव का कारण तो बनती ही हैं। सामाजिक जागृति और राजनीतिक चेतना का सही रूप कभी भी घातक नहीं होता। छत्तीसगढ़ में सही अर्थो में एक बड़ा सामाजिक आंदोलन प्रतीक्षित है जो वास्तव में भूमिपुत्रों की आकांक्षाओं का सही प्रतिबिम्बन भी कर सके।

जातीय राजनीति को कोसने और कठघरे में खड़ा करने के बावजूद वह एक ‘राजनीतिक शक्ति’ के रूप में स्वीकार्यता पा रही है। सच कहें तो ताजा दौर की राजनीति में ‘जाति’ ही सबसे बड़ा ‘संगठन’ और ‘विचार’ बन गई है। इसलिए उसकी ताकत को नकारना और लांछित करना हकीकत से मुंह चुराने जैसा ही है। भारतीय उसकी ताकत को नकारना और लांछित करना हकीकत से मुंह चुराने जैसा ही है। भारतीय समाज व्यवस्था में जाति की ताकत पुरातनकाल से रही है और राजनीति अब इसकी शक्ति का इस्तेमाल कर रही है। छत्तीसगढ़ को ‘शांति का टापू’ जैसे विशेषणों से नवाज कर आप सत्ता से वंचित वर्गों को अब ज्यादा दिन भलावे में नहीं रख सकते । देर-सबेर इन सामाजिक दबावों को स्वीकारना ही पडे़गा क्योकि कोई चाहे न चाहे परिवर्तन की दिशा सदैव समय तय करता है।

जातीय सम्मेलनों के बहाने सामाजिक सुधारों के बजाय राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी की बात ज्यादा जोर से की जा रही है। असंतुलन का कारण यही है। बदलाव हवा में नहीं होते, उसे जमीनी समर्थन तथा समाज की स्वीकृति चाहिए होती है। सोशश इंजीनियरिंग के ‘अश्वमेघ’ का सब स्वागत करेंगे बशर्तें वह विद्वेष के रथ के साथ न आए । महात्मा गांधी, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर, महात्मा फुले, संत गुरु बाबा घासीदास डॉ. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए इस प्रक्रिया को संचालित करते समय आवश्यक सावधानी बरतते हैं। वे अपने कार्यक्रमों को एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करते हैं। और अपने विचारों के पक्ष में लोक स्वीकृति चाहते हैं। वे सामाजिक बदलाव के प्रबल आग्रह के साथ-साथ विद्वेष की राजनीति से बचते हैं। दुखद यह कि आज की राजनीति में इतना श्रम,धैर्य, रचनाशीलता और इंतजार कहां है ? इसीलिए जातियों के नायक गढ़े और पूजे जाते हैं। पिछड़ों को साठ प्रतिशत हिस्सेदारी की बात डॉ. राममनोहर लोहिया ने 60 के दशक में करके एक ‘क्रातिकारी दर्शन’ दिया था और अपनी मांग के पक्ष में तार्किक बातें कहीं थीं। आज की राजनीति सैद्धांतिक आधार नहीं तलाशती बल्कि सत्ता की होड़ और दौड़ में मूल्यहीनता का संसार रचती है। शायद इसीलिए अजीत जोगी और श्यामाचरण शुक्ल हमें दो ध्रुवों पर खड़े दिखते हैं जबकि उनके दल एक हैं, विचारधारा एक है।

सामाजिक बदलाव के आंदोलन व्यापक लोकस्वीकृति से ही महान बनते हैं। छत्तीसगढ़ में यह प्रक्रिया जैसे और जिन परिस्थितियों में भी शुरू हुई है उसका स्वागत होना चाहिए किंतु राजनीति को भी चाहिए कि वह बदलाव की इस प्रक्रिया में पूरे समाज को शामिल करे और उसे विद्वेष की भेंट न चढ़ने दे। ऐसे सामाजिक आंदोलनों का उत्कर्ष देखना हो तमिलनाडु एक आदर्श हो सकता है जहां सबसे पहले ब्राम्हणों के खिलाफ दलित क्रांति ने एक सामाजिक आधार पाया और राजनीतिक सफलता भी। पक्ष-विपक्ष में अन्नाद्रमुक और वहां किसी रूप में सत्ता में हिस्सेदार नहीं हैं या कहे राजनीतिक तंत्र से बाहर हैं किंतु दलित आंदोलन की उत्तराधिकारी पार्टी की नेता और मुख्यमंत्री जयललिता जाति से ब्राम्हण हैं। गैर बराबरी खत्म होने के कारण आज वहां ‘जाति’के सवाल गौण हो गए हैं। राजनीति के क्षेत्र में मोर्चे खोलना आसान है लेकिन उसके बेहत्तर फलितार्थ पाना कठिन है, शायद छ्त्तीसगढ़ के लोग भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहे होंगे।
(13 फरवरी,2003)
000

No comments: