लाल-पीली बत्तियों के बिना


शासकीय वाहनों पर लाल-पीली बत्तियां शक्ति की प्रतीक हैं, राजसत्ता की शक्ति का प्रतीक । जनता के विशिष्ट सेवकों की पहचान। उनकी पहचान जो आम जनता की सेवा वीआईपी बनकर करते हैं। जिनके लिए सारे नियम शिथिल कर हर द्वार खोल दिए जाते हैं। प्रतिष्ठा और शक्ति का प्रतीक बनीं ये बत्तियां अब नहीं दिख रहीं। छत्तीसगढ़ सरकार के इस एक फैसले ने वास्तव में सत्ता और प्रशासन की बेचारगी तथा दयनीयता के दर्शन करा दिए हैं। लाल-पीली बत्तीयों को हटाने के राज्य शासन के फैसले का अध्ययन खासा मनोरंजक भी है।

लालबत्ती न रहने के कारण ही प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री रामपुकार सिंह को लुटेरों ने घेरा-यह बात वे स्वयं कह रहे है । साथ ही एक मंत्री को बिना की गाड़ियों के ट्रैफिक में फंस जाने का गम है। ऐसे अप्रिय हालात जब सत्ताधीशों के साथ होते हैं तो पता चलता है कि जमीनी स्थितियां क्या हैं। सालों से जशपुर-पत्थलगांव आने जाने वाले मंत्री ने पहली बार यह बात कहीं है कि कुछ लुटेरे सड़क पर खड़े होकर लोगों को लूटते रहते हैं। वहां कानून व्यवस्था के हालात बदतर हैं।

अपने विवादित फैसले के बावजूद मुख्यमंत्री इसलिए बधाई के पात्र हैं कि कम से कम उन्होंने सत्ताधीशों एवं प्रशासन को इस बात से रूबरू होने का मौका दिया है कि वे आम आदमी बनकर जरा उसके कष्टों का भी अनुभव करें। वैसे भी ऐसा हर फैसला जो भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही सत्तीधीशों तथा प्रशासन की शक्ति को कम करता दिखता है-आम जनता में लोकप्रिय होता है। यह फैसला भी एक लोकप्रियतावादी कदम से ज्यादा कुछ नहीं है। वरना क्या कारण है कि ‘सादगी के साथ जनसेवा’ का नारा देने वाली सरकार इस प्रतीकात्मक कदम को भी चुनाव वर्ष में ही लागू करती है ? यह निर्णय तो 2 वर्ष पूर्व भी लागू किया जा सकता था। अब जबकि सरकार ने इसका फैसला कर लिया है जब इसके अर्थ-अनर्थ सामने आ रहे हैं, जिस पर देर सबेर सरकार को सोचना ही होगा। खासकर ‘ला एण्ड आर्डर’ के लिए काम करने वाले प्रशासकों को इस फैसले से परेशानी होगी। पुलिस प्रशासन के लिए ये अनिवार्य जरूरत है। हालांकि मंत्रियों का इसके बिना काम चल सकता है-भले ही सबसे ज्यादा हाय-तौबा वे ही कर रहे हैं। वैसे भी जन प्रतिनिधियों को लालबत्तियों से नहीं, जनता से शक्ति अर्जित करनी चाहिए। उन्हें बत्तियां नहीं, लोग ताकत दें तभी उनका प्रतिनिधित्व सार्थक है।

दरअसल बत्तियों की बाढ़ ने की अर्थों में इनकी शक्ति का हास भी किया है और इन्हें सस्ता भी बनाया है। राजधानियों में रहने वाले अफसरशाहों-सचिवों का अमला जिस पर वास्तव में कोई मैदानी काम या ‘ला एण्ड आर्डर’ की जिम्मेदारी नहीं होती-नाहक बत्तियां लगाये फिरता था। फिर राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त लोग की फौज अलग है। इससे बत्तियों का दुरुपयोग और अवमूल्यन दोनों हो रहा था। फैसला यह सार्थक होता कि ‘ला एण्ड आर्डर’ से जुड़े अफसरों तथा विशिष्ट सत्ताधीशों के अलावा अन्य लोग इसका दुरुपयोग न कर पाते। फैशन के तौर पर विस्तार पाती ‘लालबत्ती संस्कृति’ को मर्यादित करना ज्यादा उपयोगी होता।

अब जब सरकार ने पूरी तरह से अपने तंत्र से लाल-पीली बत्तियां वापस ले ली हैं तो यह बेहतर होगा कि वह अपने मंत्रियों-अफसरों को एक डायरी भी दे और उनमें वे बिना बत्ती की गाड़ी के चलते मिलने वाले दुःख की कथाएं लिखें । वे हर अनुभव चाहे वह मार्गों पर पड़ने वाले थानों की दादागिरी के हों, शहरों के अस्त-व्यस्त ट्रैफिक के हों, सुरक्षा के या सड़कों की बदहाली के हों। इन अनुभवों के आधार पर शासन अपनी नीतियों में बदलाव लाए। ऐसी व्यवस्था खड़ी हो जो ज्यादा मानवीय और संवेदनशील हो।

लालबत्ती की ताकत से लोग डरते थे लेकिन सत्ता में यदि थोड़ी संवेदनशीलता आएगी तो उससे ज्यादा परिवर्तन दिखेगा। ‘लालबत्ती प्रसंग’ एक मौका है जिससे हम अपने शासन का चेहरा ज्यादा प्रिय बना सकते हैं। थानों के सामने ड्रम लगाकर अखंड वसूली करती पुलिस, बैरियर वालों की दादागिरी, हाइवे पर लोगों को लूटते लुटेरों के खिलाफ अभियान चला सकते हैं। फिर शायद किसी गृहमंत्री को यह न कहना पड़े कि ‘आखिर पुलिस को पुलिसिंग करने ही कहां दी जाती हैं ?’ ऐसे बेचारे जवाबों के बजाए हमारे पास समस्याओं के संदर्भ और उनके व्यवहारिक समाधान होंगे । हमारी यात्राएं सड़कें और आवागमन ज्यादा सुरक्षित और सुकून भरे होंगे।

(20 फरवरी, 2003)
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