सवाल है कि इस चुनौती से जूझेगा कौन ?


हिन्दू-मुस्लिम, हुंदू-सिख के बाद अब नजर हिन्दू-ईसाई रिश्तों में खाई चौड़ी करने पर है । करीब डेढ़ साल पहले उड़ीसा में एक ईसाई मिशनरी और उनके दो बच्चों की हत्या से शुरू हुआ सिलसिला अभी थमा नहीं है। ईसाइयों के खिलाफ अब तक देश में 36 घटनाएं हो चुकी हैं- जाहिर है बात काफी बिगड़ गई है। सरकारों लाचार है, अपराधियों के सुराग भी नदारद हैं। घटनाओं की जांच और रिपोर्ट्स का इंतजार किए बिना गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी ‘बजरंग दल’ को ‘क्लीन चिट’ दे देते हैं। आरोपियों के प्रति इस सदाशयता पर कौन न बलिहारी हो जाए।

1947 में साम्प्रदायिकता की बुनियाद पर देश के टूकड़े करने के बाद भी हमने शायद कोई सबक नहीं सीखा है। पाकिस्तान और हिंदुस्तान आज अपनी-अपनी आंतरिक समस्याओं से इस तरह परेशान हैं कि उनके प्रगति और विकास के दरवाजे सिकुड़ते जा रहे हैं।
जाहिर है इस अप्राकृतिक विभाजन के बावजूद दोनों देश बेहाल हैं। अपनी आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ मुहिम रोजाना की राजनीति का हथियार बन गई है। बारत में आई. एस. आई. की सक्रियता को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए पूर्वांचल के सात राज्यों में लगभग दर्जन भर विद्रोही आंदोलन पल भारत-नेपाल सीमा पर पड़ने वाले उ.प्र. बिहार के तमाम जिलों में अलगाववादियों की उपलब्ध कराती है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पूर्वांचल के अलगाववादी आंदोलनों में चर्च की संलग्नता और नेपाल-सीमा पर बढ़ती बढ़ती गतिविधियों में मुस्लिम कट्टरपंथियों की उपस्थिति देखी जा रही है । यह खतरे का संकेतक भर है। वैमनस्य की यह धारा समूचे देश की सामाजिक संरचना को बिगाड़ने की एक सुनियोजित साजिश सी दिखती है। यह जुड़े पाए जा रहे हैं। सही अर्थों में राष्ट्रीय सुरक्षा को ऐसी चुनौती शायद ही कभी मिली हो ।विभिन्न संप्रदायों के प्रचार-प्रसार की बात एक चीजें ठहर जातीं तो बेहतर होता, पर बात धर्मान्तरण से आगे देशघाती गतिविधियों तक जा पहुंची है। घृणित सांप्रदायिकता और विकृत धर्मनिरपेक्षता की चुनौती से निपटनें का रास्ता आखिर क्या हो सकता है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है धार्मिक संगठन अपनी भाषा और गतिविधियों को एक संयम दें। इस बात की सतर्कता भी रखें कि उनकी धार्मिक गतिविधियों की आड़ में सांप्रदायिकता या वैमनस्य फैलाने के प्रयास सफल न हो पाएं । जरूरी नहीं कि धार्मिक संगठनों से जुड़े सभी कार्यकर्ता अतिवादी मानसिकता के शिकार हों लेकिन दारा सिंह जैसा एक उदाहरण भी घृणा के जहर को तेजी से फैला सकता है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने ऐसी गतिविधियों के प्रति अब तक किसी अतिरिक्त सतर्कता का परिचय नहीं दिया है।

ईसाइयों पर हुए हमलों के आरोपियों का अब तक कानून की पकड़ से दूर रहना आखिर क्या साबित करता है ? सांप्रदायिकता का यह घृणित अभियान तभी रोका जा सकता है जब सभी धर्मों के नेता एक साथ बैठकर यह जानने की कोशिश करें कि आखिर इस बिखराव की वजह क्या है ? हमारी शिक्षा व्यवस्था में तथा समानांतर चल रहे धार्मिक शिक्षा संस्थानों में ऐसा कुछ तो नहीं बताया जा रहा है, जिससे नई पीढ़ी के बीच वैमनस्य का जहर और फैल रहा है। धर्म की वास्तविक शिक्षा किसी भी धर्म को नीचा नहीं बताती। हिंदू, ईसाई या मुस्लिम स्कूलों में पाठयक्रम या व्यवहार के स्तर पर भी दूसरे धर्म को हेय समझने की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए । एक राष्ट्र के नाते भारत की परंपरा, उसकी संस्कृति उसके जीवन मूल्यों एवं आदर्शों का सम्मान और उनके प्रति अनुराग नई पीढ़ी में कैसे जागे, इसके प्रयास भी होने चाहिए।

राजनीतिक लाभ के लिए राजनेताओं ने विभिन्न समुदायों के बीच रिश्ते बिगाड़ने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। देश की बड़ी आवादी में फैली अशिक्षा इनके मंसूबों को समझ पाने में बाधक है। जाहिर है, घृणा के अभियानों को इसीलिए जनसमर्थन भी मिल जाता है। धर्म के नाम पर अधर्म की यह खेती वस्तुतः देश को कहीं नहीं ले जाती । यदि हम सांप्रदायिकता को परास्त नहीं कर पाते है तो हमारी राष्ट्रीय एकता भी बची नहीं रह सकती । ये दोनों एक-दूसरे को शक्ति देते हैं और एक-दूसरे के भरोसे ही पनपते हैं। इनकी परस्पर सम्बद्धता को भांपकर हमें दोनों की पहचान करनी होगी तभी बहुसंख्यक सांप्रदायिकता और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के दो मुंह वाले राक्षस से देश को बाचाया जा सकेगा । देश की एकता के लिए चुनौती बन गए सांप्रदायिकता के जहरवाद के खिलाफ लड़ाई हमने आज शुरू नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

(9 जुलाई, 2000)
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